बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों के बाद सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश यह रहा कि राज्य की आधी आबादी ने इस बार सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि सत्ता निर्धारण का चमत्कार कर दिखाया।
मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत महिलाओं के खातों में भेजे गए 10–10 हजार रुपये ने न केवल चुनावी हवा को बदल दिया, बल्कि महागठबंधन द्वारा वर्षों से तैयार किए जा रहे जातीय समीकरणों को भी धराशायी कर दिया।
विपक्ष ने इसे “चुनावी रिश्वत” बताया, वसूली का भय दिखाया, लेकिन नीतीश कुमार ने हर सभा में साफ कहा—
“यह पैसा वापस नहीं लिया जाएगा।”
अंततः मतपेटियों ने बता दिया कि महिलाओं ने इस भरोसे को दिल से स्वीकार किया और वोटों में बदल दिया।
महिलाओं की भागीदारी बनी एनडीए की जीत का सबसे बड़ा आधार
इस चुनाव में महिला मतदाताओं की सक्रियता ऐतिहासिक रही।
जहाँ पुरुषों का मतदान प्रतिशत 62.98% रहा, वहीं 71.78% महिलाओं ने वोट डालकर नया रिकॉर्ड बनाया।
सिर्फ 9% का यह अंतर नहीं, बल्कि वही निर्णायक बढ़त थी जिसने सत्ता का पलड़ा मजबूती से एनडीए के पक्ष में झुका दिया।
चुनाव से ठीक पहले सात दिनों के भीतर एक करोड़ से ज्यादा महिलाओं के खातों में पहुँची राशि इस बदलाव की असली धुरी बनी। ग्रामीण, गरीब और सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए यह रकम सिर्फ आर्थिक सहायता नहीं, बल्कि पहली बार मिला आत्मसम्मान थी—वह भी सीधे उनके बैंक खाते में।
विपक्ष यह कहता रहा कि सरकार बनने के बाद पैसे वापस ले लिए जाएंगे, लेकिन नीतीश कुमार के दोहराए गए आश्वासन—
“एक भी पैसा वापस नहीं जाएगा”—
ने पूरे ग्रामीण बिहार में एक विश्वास का वातावरण बना दिया।
नीतीश सरकार की महिला-केंद्रित नीतियों का पुराना लाभ भी दिखा
दसहजारी राशि भले सबसे बड़ा चुनावी मोड़ साबित हुई हो, पर यह अकेला कारक नहीं था।
पिछले दशक में महिलाओं को केंद्र में रखकर लिए गए कई फैसलों ने भी इस चुनाव में गहरा असर दिखाया—
- आशा कार्यकर्ताओं और जीविका दीदियों का सम्मान-भत्ता बढ़ाना
- 125 यूनिट तक मुफ्त बिजली
- पेंशन बढ़ोतरी
- पुलिस में 35% आरक्षण
- पंचायत एवं नगर निकायों में 50% आरक्षण
- शराबबंदी
इन नीतियों ने महिला मतदाताओं में नीतीश सरकार के प्रति एक स्थायी भरोसा पैदा किया।
इसी भरोसे के कारण कैमूर, बक्सर, रोहतास, अरवल और औरंगाबाद जैसे जिलों में भी एनडीए ने बड़ी बढ़त बनाई, जहाँ 2020 में महागठबंधन मजबूत स्थिति में था।
महिला वोट हुआ जाति समीकरण से अलग, बना नई राजनीतिक शक्ति
बिहार की राजनीति दशकों तक जाति के इर्द–गिर्द घूमती रही, लेकिन 2025 के नतीजों ने साफ कर दिया कि महिलाएँ अब पूरी तरह स्वतंत्र, संगठित और निर्णायक मतदाता समूह बन चुकी हैं।
करीब 3.5 करोड़ महिला मतदाताओं वाले बिहार में महिलाएँ अब किसी पार्टी का “वोट बैंक” नहीं बल्कि “किंगमेकर” बन गई हैं।
मध्य प्रदेश की ‘लाड़ली बहना’, झारखंड की ‘माईयां सम्मान’ और महाराष्ट्र की ‘मेरी बहन योहना’ जैसी योजनाओं ने पहले ही यह ट्रेंड स्थापित किया था कि महिलाओं को प्रत्यक्ष आर्थिक सशक्तिकरण चुनावी परिणामों को पलट सकता है।
दिल्ली का उदाहरण—वादा मिला, पर अमल नहीं हुआ
दिल्ली में परिदृश्य अलग था।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने महिला समृद्धि योजना के तहत प्रति माह 1,000 रुपये का वादा किया, लेकिन योजना लागू न हो सकी। वादा और क्रियान्वयन के बीच की यह दूरी चुनाव में भारी पड़ी।
वहीं चुनाव से ठीक पहले बीजेपी नेता प्रवेश वर्मा द्वारा एनजीओ के जरिए 1,100 रुपये बाँटने से संदेश और उलझ गया।
इसके विपरीत, बिहार में जो घोषणा हुई वह समय पर लागू भी की गई, इसलिए महिलाओं ने उस पर विश्वास जताया।
नतीजा—महिलाओं ने दिलाया 2010 के बाद एनडीए को सबसे बड़ी जीत
महिलाओं का यह अप्रत्याशित, मजबूत और निर्णायक समर्थन एनडीए को न सिर्फ एंटी-इनकंबेंसी से बचा ले गया, बल्कि राज्य में एक दशक से भी अधिक समय बाद सबसे बड़ी जीत दिलाई।
महिला रोजगार योजना की यह प्रत्यक्ष आर्थिक मदद अब बिहार की राजनीति में एक “नया सामाजिक अनुबंध” बन चुकी है—जहाँ आधी आबादी सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि सत्ता की वास्तविक निर्माता बनकर उभरी हैं।