NEWS PR डेस्क। भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान हड़हा सराय में अपने मकान की सबसे ऊपरी मंजिल पर रहा करते थे। उनके कमरे की एक खिड़की काशी विश्वनाथ मंदिर की दिशा में खुला करती थी। जब तक उस्ताद जिंदा रहे बाबा भोलेनाथ को भोर में शहनाई बजाकर जगाया करते थे। खिड़की तो अब भी खुलती है, लेकिन बिस्मिल्लाह की शहनाई नहीं गूंजती। धर्म की सीमाओं से परे मां सरस्वती के अनन्य भक्त थे। वह अक्सर मंदिरों में शहनाई बजाया करते थे। शहनाई उनके लिए अल्लाह की इबादत और सरस्वती वंदना का जरिया थी। संगीत के माध्यम से उन्होंने एकता, शांति और प्रेम का संदेश दिया था। उनका जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ था।
…यूं तो शहनाई नवाज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पहचान है मगर बिस्मिल्लाह खां जी के साथ एक नाम और जुड़ा मुरली का। ये मुरली बिस्मिल्लाह की होठों से कभी नहीं लगी। मगर बिस्मिल्लाह के दिल से हमेशा लगी रही। हम बात कर रहे हैं मुरली मनोहर श्रीवास्तव की जो आजीवन उस्ताद के हर दिल अजीज बने रहे। उनके साथ गुजरे वक्त को याद कर आज भी उनकी आंखें नम हो जाती हैं। बहुत कम उम्र से ही बाबा के प्रति एक अदभुत लगाव बना रहा। हो भी क्यों नहीं अपने पिता जी (डॉ. शशि भूषण श्रीवास्तव) भोजपुरी फिल्म “बाजे शहनाई हमार अंगना” के लिए उन्हें लेकर आए थे वो तो पंद्रह दिनों तक बचपन में उस्ताद के साथ गुजारने का मौका क्या मिला, बस उस्ताद के होकर रह गए।
तब मुरली की उम्र बहुत कम थी। लेकिन जब उम्र बढ़ी तो अपने कदम भी बढ़ते गए। पढ़ाई करने के दरम्यान जब कभी वक्त मिले तो बाबा से मिलने वाराणसी जा पहुंचते थे। उनके साथ पूरा दिन उनकी गायकी और रियाज से रुबरु होकर वापस डुमरांव लौट जाते थे। इसी दरम्यान मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने बाबा के उपर ही किताब लिखना शुरु कर दिया। जब कभी भी इसका जिक्र वो लोगों से करते तो लोग उनकी बातों का मजाक बना देते थे। पर, इससे मुरली मनोहर श्रीवास्तव को कुछ असर नहीं पड़ा और वो लगातार उस्ताद पर काम करते रहे। उस्ताद पर “शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” पुस्तक तो तैयार हो गई मगर छपने में उसे लगभग 10 साल लग गए। जब प्रकाशित हुई तो उस्ताद इस दुनिया में नहीं रहे। दरअसल मुरली के पास पैसे नहीं थे पुस्तक छपवाने के लिए और प्रकाशक छापने को नए लेखक को तैयार नहीं थे। फिर क्या देर होना तो लाजिमी था। बावजूद इसके मुरली ने कोई हार नहीं मानी और लगातार लगे रहे। पुस्तक जब छपी तो देश से लेकर विदेशों तक में अपनी पहचान स्थापित कर लिया।
यह कदम यहीं आकर नहीं थमें और उस्ताद पर पिछले 24 सालों से काम करने के दौरान उस्ताद पर एक डॉक्यूमेंट्री “सफर-ए-बिस्मिल्लाह” बनायी जिसे बिहार सरकार ने रिलिज किया साथ ही उस्ताद पर दूरदर्शन के लिए भी डॉक्यूमेंट्री बनाया। उस्ताद की दत्तक पुत्री पद्मश्री डॉ. सोमा घोष का भी मुरली को काफी स्नेह बना रहता है। तभी तो सोमा घोष ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी में “संगीत ग्राम” में भी मुरली को अपने साथ जोड़ लिया है। इसके अलावे मुरली मनोहर श्रीवास्तव डुमरांव में “बिस्मिल्लाह खां विश्वविद्यालय” खोलने के लिए 2013 से काम कर रहे हैं। इसके लिए बिहार सरकार के भू-राजस्व विभाग से भूमि आवंटन के लिए प्रस्ताव जिला को भेजवा चुके हैं। यूपी सरकार से लंबी वार्ता के बाद यूपी की सरकार ने उस्ताद की मजार का पक्कीकरण करवाया। इसके अलावे रेल विभाग ने मुरली के लंबे समय से कि जा रही मांग को मानते हुए डुमरांव स्टेशन पर उस्ताद की तस्वीरें बनवायीं और अनाउंसिंग माइक से शहनाई की धुन भी बजायी जाने लगी हैं।
कभी हंसी के पात्र बनने वाले मुरली ने लगातार उस्ताद की स्मृतियों को संजोने के साथ-साथ हर दिन एक नई इबारत लिखते रहे हैं। ये वो मुरली (बांसुरी) हैं जो कभी बिस्मिल्लाह की होठों से भले ही नहीं छू पाए हों मगर अपनी लगन के बूते बाबा के गीत-संगीत और मिल्लत को गांव-गांव तक पहुंचा रहे हैं। इस नेक काम में इनके साथ कई लोग जुड़ते चले गए और कारवां बनता चला गया। आज स्थिति ये है कि इन्हें लोग उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब के साथ इनका नाम भी बड़े अदब के साथ लेते हैं।