शरद चंद्र चट्टोपाध्याय जी के पुण्यतिथि के अवसर  पर पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष सह प्रवक्ता JDU ट्रेडर्स प्रकोष्ठ के संजीव श्रीवास्तव ने श्रद्धांजलि अर्पित की।

Patna Desk

 

 

शरद चंद्र चट्टोपाध्याय जी के पुण्यतिथि के अवसर  पर पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष सह प्रवक्ता JDU ट्रेडर्स प्रकोष्ठ के संजीव श्रीवास्तव ने श्रद्धांजलि अर्पित की।

सन् १८८३ में शरत्चन्द्र का दाखिला भागलपुर दुर्गाचरण एम०ई० स्कूल की छात्रवृति क्लास में कराया गया। नाना केदारनाथ गांगुली इस विद्यालय के मंत्री थे। छात्रवृत्ति पाकर शरत् ने टी. एन. जुबिली कालेजिएट स्कूल में प्रवेश किया। उनकी प्रतिभा उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। १८९३ ई. में हुगली स्कूल के विद्यार्थी रहने के समय उनकी साहित्य-साधना का सूत्रपात हुआ। १८९४ ई. में उन्होने एन्ट्रेन्स परीक्षा (दसवीं कक्षा के बाद होने वाली सार्वजनिक परीक्षा) द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी समय भागलपुर की साहित्य-सभा की उन्होंने स्थापना की। सभा का मुखपत्र हस्तलिखित मासिकपत्र ‘छाया’ था। इन्हीं दिनों उन्होंने “बासा” (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। उनकी कालेज की पढ़ाई बीच में ही रह गई।

कॉलेज त्यागकर १८९६ ई. से लेकर १८९९ ई. तक शरत्चन्द्र भागलपुर शहर के आदमपुर क्लब के सदस्ययों के सङ्ग खेलकूद एवं अभिनय ककके समय काटते रहे। इसी समय बिभूतिभूषण भट्ट के घर से उन्होने एक साहित्यसभा का संचालन किया जिसके फलस्वरूप उन्होने ‘बड़दिदि’, ‘देबदास’, ‘चन्द्रनाथ’, ‘शुभदा’ इत्यादि उपन्यास एवं ‘अनुपमार प्रेम’, ‘आलो ओ छाया’, ‘बोझा’, ‘हरिचरण’ इत्यादि गल्प की रचना की। इसी समय उन्होने ‘बनेली एस्टेट’ में कुछ दिन नौकरी की। किन्तु १९०० ई में पिता के ऊपर किसी कारण नाराज होकर वे सन्यासी वेष में घर छोड़ चले गए। इसी समय उनके पिता की मृत्यु हो गयी और उन्होने भागलपुर वापस आकर पिता का श्राद्ध किया और उसके बाद १९०२ ई. में अपने मामा लालमोहन गंगोपाध्याय के पास कलकत्ता आ पहुँचे जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील थे। उनके ही घर रहकर वे हिन्दी पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद करने लगे जिसके लिए उन्हे तीस रूपए प्रतिमाह मिलते थे। इसी समय उन्होने ‘मन्दिर’ नाम का एक गल्प लिखकर ‘कुन्तलीन’ नामक प्रतियोगिता में भेजा जिसमें वे विजयी घोषित हुए।

छः मास लालमोहन गंगोपाध्याय के घर रहने के बाद शरत्चन्द्र १९०३ ई के जनवरी मास में रंगून में लालमोहन गङ्गोपाध्याय के बहनोई वकील अघोरनाथ चट्टोपाध्यायेर के घर चले आए। अघोरनाथ उनके लिए बर्मा रेलवे के अडिट अफिस में एक अस्थायी नौकरी की व्यवस्था कर दिए। इन दिनों उनका संपर्क बंगचंद्र नामक एक व्यक्ति से हुआ जो था तो बड़ा विद्वान् पर शराबी और उछृंखल था। यहीं से चरित्रहीन का बीज पड़ा, जिसमें मेस जीवन के वर्णन के साथ मेस की नौकरानी (सावित्री) से प्रेम की कहानी है। दो वर्ष वह नौकरी करने के बाद वे उनके बन्धु गिरीन्द्रनाथ सरकार के आथ पेगु चले गए और वहाँ अबिनाश चट्टोपाध्याय के घर निवास किया। १९०६ ई के अप्रैल मास में बर्मा के पब्लिक वर्क्स एकाउण्ट्स ऑफिस के डिप्टी एग्जामिनर मणीन्द्रनाथ मित्र की सहायता से शरत्चन्द्र रंगून के इस ऑफिस में नौकरी पा गए और आगे के दस वर्ष यह नौकरी करते रहे।

१९१२ ई के अक्टूबर मास में शरत्चन्द्र एक मास की छुट्टी लेकर घर लौटे तो ‘यमुना’ नामक पत्रिका के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल ने अपनी पत्रिका के लिए उनसे लेख भेजने का अनुरोध किया। उसके अनुसार रंगून वापस जाने के बाद शरत्चन्द्र ने ‘रामेर सुमति’ नामक कहानी भेजी जो यमुना पत्रिका में बंगाब्द १३१९ के फाल्गुन और चैत्र अंक में प्रकाशित हुई।

छः मास लालमोहन गंगोपाध्याय के घर रहने के बाद शरत्चन्द्र १९०३ ई के जनवरी मास में रंगून में लालमोहन गङ्गोपाध्याय के बहनोई वकील अघोरनाथ चट्टोपाध्यायेर के घर चले आए। अघोरनाथ उनके लिए बर्मा रेलवे के अडिट अफिस में एक अस्थायी नौकरी की व्यवस्था कर दिए। इन दिनों उनका संपर्क बंगचंद्र नामक एक व्यक्ति से हुआ जो था तो बड़ा विद्वान् पर शराबी और उछृंखल था। यहीं से चरित्रहीन का बीज पड़ा, जिसमें मेस जीवन के वर्णन के साथ मेस की नौकरानी (सावित्री) से प्रेम की कहानी है। दो वर्ष वह नौकरी करने के बाद वे उनके बन्धु गिरीन्द्रनाथ सरकार के आथ पेगु चले गए और वहाँ अबिनाश चट्टोपाध्याय के घर निवास किया। १९०६ ई के अप्रैल मास में बर्मा के पब्लिक वर्क्स एकाउण्ट्स ऑफिस के डिप्टी एग्जामिनर मणीन्द्रनाथ मित्र की सहायता से शरत्चन्द्र रंगून के इस ऑफिस में नौकरी पा गए और आगे के दस वर्ष यह नौकरी करते रहे।

१९१२ ई के अक्टूबर मास में शरत्चन्द्र एक मास की छुट्टी लेकर घर लौटे तो ‘यमुना’ नामक पत्रिका के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल ने अपनी पत्रिका के लिए उनसे लेख भेजने का अनुरोध किया। उसके अनुसार रंगून वापस जाने के बाद शरत्चन्द्र ने ‘रामेर सुमति’ नामक कहानी भेजी जो यमुना पत्रिका में बंगाब्द १३१९ के फाल्गुन और चैत्र अंक में प्रकाशित हुई।

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