NEWSPR डेस्क। “कैसा युग आ गया, मंदिर-मस्जिद, कौम लोग करते फिर रहे हैं, मैंने तो जिंदगी का अधिक वक्त मंदिरों में ही गुजारा, किसी ने कोई बात नहीं कही. ईश्वर के आशीर्वाद और लोगों के प्यार से इतनी दूरी तय कर पाया हूं. इसलिए कहता हूं कि इससे ऊपर उठकर संगीत सीखो…सब एक हो जाओगे”- ये शब्द हैं भारतरत्न शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के.
संगीत न केवल विधा है बल्कि एक महाशक्ति है. तभी तो भावनाओं की तृप्ति संगीत के माध्यम से होती हैं. राग-रागिनियों के अलाप से अनेक चमत्कारों की चर्चा धर्मग्रंथों तथा शास्त्रों में पायी जाती है. बिहार के पुराने शाहाबाद जिले (अब बक्सर जिला) के डुमरांव राज में पैगंबर बख्श उर्फ बचई मियां के यहां 21 मार्च 1916 को कमरुद्दीन ने जन्म लिया.
परिवार के खातिर की दूसरी शादी
वही बालक आगे चलकर बिस्मिल्लाह खां के नाम से प्रसिद्ध हुआ. जिंदगी में काफी उतार चढ़ाव का सामना करना पड़ा. पैगंबर बख्श के दो बेटे – शम्सुद्दीन (बड़े) और कमरुद्दीन (छोटे) जिनके सर से मां का साया बचपन में ही उठ गया. एकाएक इस परिवार पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा. समय के साथ समझौता करना पड़ा. परिवार की जिम्मेदारी को देखते हुए बचई मियां को दूसरी शादी करनी पड़ी. कमरुद्दीन की अब नई मां आ गई ये भी दोनों बेटों को बहुत प्यार करती थी.
(वर्ष 1979-डुमरांव- फिल्म के मूहूर्त की तस्वीर- बिस्मिल्लाह,नाज,भारतभूषण, शशिभूषण)
कमरुद्दीन के दादा रसूल बख्श मियां डुमरांव राज के मुलाजिम थे.इनका पुश्तैनी पेशा शहनाई वादन था. बाल्यवस्था से ही बालक कमरुद्दीन का पढ़ाई में जी नहीं लगता था. संगीत के प्रति लगाव के कारण उनके अब्बाजान ने डुमरांव राजगढ़ के बांके बिहारी मंदिर में शहनाई की धुनों से उनका परिचय कराया.
शहनाई को दरबारी भाषा में ‘नौबत’ कहा जाता था. संगीत की अच्छी तालिम के लिए दोनों भाई अपने बेऔलाद मामू अली बख्श के शागिर्द बनकर लगभग 10 वर्ष की अवस्था में ही अपनी जन्मभूमि डुमरांव से बनारस (वाराणसी) रवाना हो गए. शहनाई वादन के साथ-साथ ख्याल, ठुमरी, धमार, ध्रुपद गायकी की शिक्षा विधिवत मामू ने दिलाई. डुमरांव जन्मभूमि तो वाराणसी उनकी कर्म भूमि बनी.
इस कार्यक्रम से मिली पहचान
वर्ष 1930 में 14 वर्षीय कमरुद्दीन को काफी जद्दोजहद के बाद ऑल इंडिया म्यूजिक कांफ्रेंस इलाहाबाद में कार्यक्रम प्रस्तुति का मौका मिला. कार्यक्रम के दौरान ही श्रोताओं के बीच से आवाज आयी वाह ! उस्ताद वाह ! कहां छुपा रखा था इस कला के जादूगर को ! उसके बाद कार्यक्रम में पूरी तरह से ये छागए. हौसला बढ़ा, न्योता मिला. वर्ष 1937 में कोलकाता में शहनाई वादन कर लगातार तीन स्वर्ण पदक पाकर कीर्तिमान स्थापित किया. जिससे अच्छे संगीतज्ञों में शुमार हुए. इसके बाद तो जैसे इनको जैसे पंख लग गए. एक के बाद एक उपलब्धि इनके नाम होता गया. वर्ष 1938 में‘ऑल इंडिया रेडियो’ से जुड़े गए.
ऐसा पड़ा बिस्मिल्लाह नाम
मामू अली बख्श की मृत्यु के बाद जीविकोपार्जन के लिए दोनों भाईयों ने मिलकर ‘बिस्मिल्लाह एंड पार्टी’ बनाया. बड़े भाई शम्सुद्दीन कुछ ही दिनों बाद रीवा स्टेट में शहनाई वादन करने चले गए. पार्टी चलती रही. फिर क्या कमरुद्दीन को ही लोग बिस्मिल्लाह कहना शुरु कर दिया जो आगे चलकर उनका यही नाम प्रसिद्ध हो गया. वक्त की मार पड़ी और वर्ष 1951 में दोस्त समान बड़े भाई शम्सुद्दीन ऐसे बीमार हुए की बच नहीं पाए. फिर एकबार इस चोट से दिल दहल उठा. कमरुद्दीन अकेले हो गए. वादन पूरी तरह ठप्प पड़ गया.
उस्ताद के जिंदगी की राह में पहले मां, अब्बा, मामू और अब भाई के बिछड़ने से रास्ते के अकेले पथिक कमरुद्दीन की आंखों के आंसू थमते नहीं थे. शहनाई बजाना छोड़ दिया. बहुत समझाने-बुझाने के बाद फिर से शहनाई को थामा, मगर अब इसमें टीस पैदा हो गई थी. वादन के क्रम में इतनी दूरी तय कर ली कि पूरे कुल का नाम रौशन कर ‘बिस्मिल्लाह’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
भोजपुरी में कई गीत
गुरु-शिष्य परंपरा का पालन करने वाले बिस्मिल्लाह ने अपनी पहचान विश्व में बना ली. नली वाले सुषिर वाद्य यंत्रों में उत्तर भारत का सर्वश्रेष्ठ वाद्य शहनाई है। जिसका सहयोगी वाद्य – दुक्कड़ (खुरदक), मंजीरा तथा रीपिट शहनाई जो दुहराता है. बिस्मिल्लाह ने भोजपुरी ऋतुगीत, सावन में कजरी, चैता, स्तुतिगीत, सोहर, मुंडनगीत, मांगलिक गीत, छठगीत, बारहमासा, झूमर, प्रेममुलक-गीत, बिरहा आदि पर अपनी धुन देकर दुनिया को अपना मुरीद बनाया.
वादन काल में दिया हजारों फिल्मों को संगीत
भारत के सर्वश्रेष्ठ अलंकरण भारतरत्न से वर्ष 2000 में बिस्मिल्लाह खां और लता मंगेशकर को साथ-साथ विभूषित किया गया. जहां परिवार में बिखराव की परिपाटी घर कर गई है. वैसे जमाने में सौ से भी ज्यादा लोगों के संयुक्त परिवार को एकसाथ लेकर चलते रहे. अपने वादन काल में तो हजारों फिल्मों को संगीत दिया. लेकिन तीन फिल्मों में बतौर संगीत निर्देशक काम किया. जिसमें गुंज उठी शहनाई (हिंदी), सन्नाधिअपन्ना (मद्रासी) तो वर्ष 1979 में बाजे शहनाई हमार अंगना (भोजपुरी) है.
21 अगस्त 2006 को वाराणसी में निधन
इतना ही नहीं बक्सर जिले की पहली फिल्म यूनिट को डुमरांव में लाने का श्रेय डॉ.शशि भूषण श्रीवास्तव को जाता है. जो आज इस जिले का इतिहास बन गया. उम्र की ढलान पर उस्ताद घुटने की तकलीफ से परेशान रहने लगे तभी तो 1983 के बाद डुमरांव नहीं आ सके. पुस्तक लिखने के दरम्यां कई बार मुलाकात हुई. अपने गांव की सोंधी मिट्टी की सुगंध और मेरा घरवईया आया है कहकर सीने से लगा लेते थे. अपने बचपन और डुमरांव को याद कर बरबस छलक पड़ते थे. और वो दिन भी आया जब उस्ताद ने अपनी जलालत भरी जिंदगी के बीच इस जहां को 21 अगस्त 2006 को वाराणसी में हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. रह गई तो उनकी यादें और उनके द्वारा बजाई गई स्वरलहरियां.
(लेखक -“शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” हिन्दी पुस्तक)