IN SIDE STORY- धरती का सीना चीर फसल उगाने वाले को कहते हैं मजदूर, मजबूर समझना हमारी भूल

 

NEWSPR DESK- Patna- मजदूर को मजबूर समझना हमारी सबसे बड़ी भूल है, वह अपने खून पसीने की कमायी खाता है। ये ऐसे स्वाभिमानी लोग होते है, जो थोड़े में भी खुश रहते है एवं अपनी मेहनत व लगन पर विश्वास करते हैं। इन्हें किसी के सामने हाथ फैलाना पसंद नहीं। मजदूरी करने वाले व्यक्ति के भाव को यदि आप देखेंगे तो उतना सच्चा, ईमानदार और भोलेपन के साथ काम करने की स्पष्टता और उनके अंदर कोई भेद और उलझन नहीं दिखेगा।

मेहनत उसकी लाठी है,
मजबूती उसकी काठी है।
बुलंदी नहीं पर नीव है,
यही मजदूरी जीव है।

मजदूर का मतलब हमेशा गरीब से नहीं होता हैं, मजदूर वह ईकाई हैं, जो हर सफलता का अभिन्न अंग हैं, फिर चाहे वो ईंट-गारे में सना इंसान हो या दफ्तर की फाइल्स के बोझ तले दबा कोई कर्मचारी। हर वो इन्सान जो किसी संस्था के लिए काम करता हैं, बदले में पैसे लेता है, वो मजदूर है। मजदूर तुच्छ नहीं है, मजदूर समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। मजदूर वर्ग समाज का एक अभिन्न अंग है। मगर हमारे समाज में मजदूर को हमेशा गरीब ही समझा जाता है। समाज को मजबूत व परिपक्व बनाता है, समाज को सफलता की ओर ले जाने में इनकी बड़ी भूमिका है।

 

 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्पष्ट रुप से कहते हैं कि बिहारी मजदूर अगर एकदिन दिल्ली में काम करना बंद कर दें तो दिल्ली ठप्प पड़ जाएगी। बिहारी कहलाना अपमान की बात नहीं, सम्मान की बात है। बिहारी को कुछ लोग गाली के रुप में या यूं कहें लेबर क्लास दर्जे के रुप में परिभाषित करते हैं। यहां के मजदूरों की सहृदयता, अपनापन, मनोभाव से काम करने की प्रवृति का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि दिल्ली, मुंबई, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे प्रदेशों में काम करने वाले मजदूर अगर छुट्टी में घर आ जाते हैं और वापस जाने में देर करते हैं तो उनके मालिक का फोन लगातार आने लगता है और बहुत मालिक तो घर तक भी चले आते हैं और एडवांस देकर जाते हैं।

पलायन का इतिहास…

बिहार ने पलायन को तीन दौर में देखा है। पहले दौर में अंग्रेजों ने बिहारी श्रमिकों को देश के बाहर पलायन करने के लिए मजबूर किया। दूसरा दौर हरित क्रांति के बाद शुरू हुआ, जब मजदूर पंजाब, हरियाणा जाने लगे। तीसरा मौजूदा दौर उदारीकरण के साथ शुरू होता है, जब शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन का रुझान बढ़ा। अब सर्कुलर पलायन यानि काम करके फिर वापस आ जाने की बजाय शहर में ही बसने की रुचि दिनोदिन बढ़ती जा रही है।
श्रम सुलभ अर्थव्यवस्था में कौशल विकास लोगों की आर्थिक उन्नति और सामाजिक गतिशीलता की कुंजी है। बिहार सरकार एवं केंद्र सरकार युवाओं को कुशल बनाने के लिए कुशल योजना कार्यक्रम पर विशेष जोर दे रही है। बिहार में कारखानों में प्रति व्यक्ति वार्षिक मजदूरी-वेतन (बोनस सहित) बहुत कम नहीं थी।

 

 

बिहार शताब्दी असंगठित क्षेत्र श्रमिक एवं कारीगर सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना 2011 के तहत राज्य के असंगठित श्रमिकों और कारीगरों को सामाजिक सुरक्षा देने के मकसद से बिहार राज्य श्रम कल्याण समिति के माध्यम से सहयोग किया जा रहा है।

 

सबसे अधिक होता है पलायन

 

उत्तर बिहार की नदियों आए दिन बाढ़ की विभीषिका के कारण इन इलाकों के मजदूरों का आशियाना उजड़ जाता है। यही वजह है कि इस इलाके के गरीब और असहाय अपने घर की माली हालत को सुधारने के लिए पलायन करते हैं। राज्य में अधिकांश लोगों के आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि है। यह राज्य के कुल श्रमिकों में से 66 प्रतिशत को और ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाले कुछ श्रमिकों के 75 प्रतिशत को रोगजार उपलब्ध कराता है। इनमें से ज्यादातर छोटे किसान और कृषि मजदूर वर्ग के होते हैं। कृषि जोत बहुत छोटे-छोटे टुकड़ो में बंटी है और लगभग 85 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है। कर्ज की अदायगी न होने पर अगर जमीन पर आंच आने लगे तो आसामी के माता-पिता तो उसी सदमें से तिल-तिल कर मरते हैं। इनके बच्चे गरीबी और जिल्लत की जिंदगी जीने के विवश हो जाते हैं। दो जून की रोटी के लाले पड़ जाते हैं नतीजतन ये मासूम दलालों के हत्थे चढ़कर बाल मजदूरों बन जाते हैं।

 

मधुबनी, शिवहर, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और अररिया जिले-कमला और कोसी के बीच में पड़ते हैं। इन इलाकों में हमेशा बाढ़ की आशंका बनी रहती है। ये जिले प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल हैं और इन्हीं क्षेत्रों से मजदूरों का सबसे ज्यादा पलायन होता है। जब बाढ़ का पानी उतरता है, तो खेत काफी उर्वर हो जाते हैं और इसमें धान, गेहूं, मक्का, मसूर, सरसों, गन्ना के साथ-साथ आम, लीची और केले जैसे फलों की भी बढिय़ा खेती होती है। इसको लेकर कुछ मजदूरों की वापसी भी होती है। उत्तर बिहार के उलट दक्षिण बिहार समृद्ध है। दक्षिण बिहार ज्यादा शहरीकृत है और इसमें पटना, गया, मुंगेर, भागलपुर, बरौनी और बेगूसराय जैसे शहर शामिल हैं। बिहार के इन मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए सरकार ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही है।

 

संघर्ष से सुधरी जीवनशैली

 

कई बार मजदूर आगे बढ़ जाता है, इसकी कहानी बताने के उत्साह में विद्वान यह भूल जाते हैं कि गैर-बराबरी और उससे जुड़ी हिंसा, अपमान, शोषण उनके साथ-साथ चलते हैं। पलायन करनेवाले मजदूर ही शहरी गरीब हैं। समय-समय पर उजाड़े जाते हैं, स्थानीय और बाहरी की लड़ाई में निशाना बनते हैं। इसलिए, पलायन के सवाल पर गंभीर विमर्श की जरूरत है। पलायन करनेवाले मजदूरों की लड़ाई बिहार के गांवों से लेकर बड़े शहरों तक लड़ी जानी है और लड़ी भी जा रही है।

 

अपनी जिंदगी के साथ जुड़ी कई जिंदगियों की दशा-दिशा सुधारने के लिए मजदूर दो जून की रोटी के लिए पलायन करते हैं। मजदूरी से जो पैसे कमाते हैं अपना खर्चा चलाने के बाद बाकि के पैसे अपने घर भेज देते हैं। गरीबी खत्म भी हुई हो तो पुरानी धुर गरीबी जरूर खत्म हुई है। महत्वपूर्ण मौकों पर उन्हें कर्ज लेना पड़ता था, उसमें कमी आई है। खानपान पहनावे में सुधार है। इसका यह अर्थ नहीं कि सब कुछ अच्छा हो गया है। श्रमिक वर्ग पलायन के जरिये अपने जीवन में बड़े बदलाव की उम्मीद लेकर पलायन तो करते हैं मगर उनके सपने कोरे साबित होकर रह जाते हैं। हां एक बात जरुर है कि असंगठित क्षेत्र में खुदरा मजदूर के रूप में पलायन करेंगे, तो किसी भी कीमत पर बदलाव की कल्पना बेमानी साबित होगी।

 

बिहार ने जब रोकी पलायन

 

बिहार के मुख्यमंत्री ने जो कानून व्यवस्था बहाल की, वह बिहार की वृद्धि की मुख्य वजह रही है। इससे निजी और सार्वजनिक, दोनों निर्माण के कामों में अचानक तेजी आने लगी और ये बिहार की वृद्धि के दूसरे चालक बन गए। पिछले दशक के दौरान बिहार राजस्व संबंधी समझदारी, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लक्ष्य आधारित खर्च और विकास की बेहतर मिसाल बनकर उभरा है। लेकिन गरीबी कम करने और पलायन रोकने के लिए राज्य को तेज उद्योगीकरण और कृषि उत्पादकता में सुधार की जरूरत है।

 

80 देशों में 1 मई को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित

 

1 मई को अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रुप में पूरी दूनिया में मनाया जाता है, ताकि मजदूर एसोसिएशन को बढ़ावा व प्रोत्साहन मिल सके। यूरोप में तो इसे पारंपरिक तौर पर बसंत की छुट्टी घोषित किया गया है। दूनिया के लगभग 80 देशों में इस दिन को राष्ट्रीय छूट्टी घोषित की गई है। अमेरिका व कनाडा में मजदूर दिवस सितम्बर महीने के प्रथम सोमवार को मनाया जाता है। पहली बार भारत में चेन्नई में 1 मई 1923 को मजदूर दिवस मनाया गया था, इसकी शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदूस्तान ने की थी।

 

मजदूर-मजदूरी-पलायनः तथ्यात्मक विश्लेषण

 

बिहार के सामाजिक परिवेश की अवधारणा और बिहार के बाजार की अच्छी समझ रखने वाले शिक्षाविद का मानना है कि बिहार का अर्थशास्त्र किसी फार्मूले पर नहीं चलता है और बिहार का बाजार यहां के पूंजीपतियों से ज्यादा यहां के मजदूरों पर टिका हुआ है। यही वह तबका है जिसके बूते बिहार आज डबल डिजीट ग्रोथ से आगे बढ़ रहा है।
अगर अर्थशास्त्री की दृष्टिकोण से मजदूर दिवस को देखेंगे तो पूरे अर्थ व्यवस्था के रीढ़ मजदूर के लिए काफी कुछ किए जाने की जरुरत है। इस दिवस पर सरकारों को व्यापारी घरानों को मजदूरों के हित और सुरक्षा के लिए जो कानून बनाए गए हैं उसके व्यवहारिक पहलुओं पर विशेष ध्यान देते हुए जमीन पर उतारना है।