BREAKING- हर तरफ दिख रहा बदलाव का असर, बस उनकी आंखों पर है अंधविरोध का चश्मा

Sanjeev Shrivastava

NEWSPR DESK- बिहार के औद्योगिक विकास की बातें आजकल विपक्ष कुछ ज्यादा ही उठा रहा है। विपक्ष के नेता वर्तमान सरकार पर इस मामले को लेकर लगातार तंज कस रहे हैं। लेकिन, जब वे सत्ता में थे, तब उन्होंने क्या किया, इस पर बात ही नहीं करते। उनकी नीति से तंग आकर ही लोगों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपी। पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री लगातार उन 15 वर्षों की नाकामी को पाटने में लगे हैं, जिसने प्रदेश को आर्थिक रूप से सक्षम होने की दिशा में बड़े अवरोध पैदा किए हैं।

आप सोच लीजिए, जिस प्रदेश में अपहरण उद्योग का दर्जा प्राप्त किया हो। व्यवसायिक घरानों को अपनी इकाई लगाने के लिए गुंडा टैक्स भरना पड़ा हो। किसी भी निर्माण योजना के लिए विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार की दर तय हो, उस राज्य में कोई निवेशक आएगा भला। वर्ष 1990 से 2005 के बीच बिहार को ऐसे ही दलदल में धकेल दिया गया। अपराधी व गुंडों को संरक्षण दिया गया, जिन्होंने औद्योगिक घरानों में एक प्रकार का भय उत्पन्न कर दिया। वे अपनी जान की कीमत पर प्रदेश में अपनी इकाई लगाने की जगह सुरक्षित स्थानों पर पलायन करने लगे।

वर्ष 1991 के औद्योगिक उदारीकरण के बाद बिहार के पास भी विकास की समान संभावना थी। देश के पश्चिमी राज्यों ने इस संभावना को मौके में बदला। औद्योगिक इकाईयों व विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए। इसका फायदा उन्हें मिला। हमारे प्रदेश में युवाओं के सामने दो ही विकल्प दिया गया। एक हथियार उठाकर अपराधी बन जाओ या फिर प्रदेश से बाहर निकलकर अपने लिए संभावना तलाशें। अधिकांश युवाओं ने दूसरे विकल्प को चुना और हमारा प्रदेश पोस्टऑर्डर इकोनॉमी बनकर रह गया।

वर्ष 2005 में प्रदेश में सत्ता बदली, तब जाकर सुस्त पकड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने का प्रयास किया गया। मुख्यमंत्री ने सबसे पहले सड़क, शिक्षा व कानून व्यवस्था पर जोर देना शुरू किया। कानून व्यवस्था की स्थिति बदली तो फिर निवेशकों में एक भरोसा बनना शुरू हुआ कि प्रदेश में भी वे अपनी इकाईयां खोल सकते हैं। हालांकि, सड़क की हालात इतनी बदतर थी कि मुजफ्फरपुर, छपरा, दरभंगा, भागलपुर, जहानाबाद, गया, औरंगाबाद जैसे शहरों में भी पहुंचने में पूरा दिन निकल जाता था। कनेक्टिविटी की इस घटिया स्थिति में कोई भी बाहरी पटना को छोड़कर अन्य जिलों में जाने को तैयार नहीं था।

मुख्यमंत्री जी ने कनेक्टिविटी पर जोर दिया। किसी भी व्यवसाय का प्राथमिक बिंदु होता है कि उत्पाद हरेक व्यक्ति तक पहुंचे। सड़कों के निर्माण कार्य के पूरा होने के बाद प्रदेश के विभिन्न भागों में पहली बार गाड़ियों के शोरूम तक खुलने शुरू हुए। औद्योगिक विकास के लिए इन मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के बाद भी निवेश के लिए इकाईयों को आकर्षित किया जाना इतना आसान नहीं है। कोरोना संक्रमण के बाद बदली स्थिति में सरकार ने एमएसएमई को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने का निर्णय लिया है। खाद्य प्रसंस्करण यूनिट की स्थापना लगातार हो रही है। खेती पर आधारित इकोनॉमी को बदलने की मुख्यमंत्री लगातार कोशिश कर रहे हैं। अब तो इथेनॉल के उत्पादन को लेकर भी सरकार की ओर से काम किया जा रहा है।

1990 से 2005 के बीच जिस बिहार को औद्योगिक विकास के मामले में 25 साल पीछे धकेल दिया गया था, पिछले 15 साल में डबल डिजिट का ग्रोथ देकर उसे पाटने की कोशिश की गई है। विरोध करने वालों को आंकड़ा देखना चाहिए। बिहार में वर्ष 2004-05 में प्रति व्यक्ति आय 8,560 रुपए थी, जो अगले 10 साल में बढ़कर 16,652 रुपए हो गई। यह प्रगति दोगुनी से अधिक की रही। वर्ष 2004-05 में बिहार की जीडीपी में कृषि की भागीदारी 32 फीसदी, उद्योग की 14 फीसदी और सर्विस सेक्टर की 55 फीसदी थी। अगले 10 साल बाद यानी 2014-15 में प्रदेश की जीडीपी में कृषि की भागीदारी 19 फीसदी, उद्योग की 19 फीसदी और सर्विस सेक्टर की 63 फीसदी रही। इस प्रकार बदलाव को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अंधविरोध का चश्मा लगाए लोगों को यह सब नहीं दिखेगा।

कोरोना संक्रमण काल के बाद महामारी जैसी स्थिति से अपने प्रदेश के लोगों को बचाने जैसी स्थिति पर चर्चा शुरू की गई। स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में इजाफा शुरू किया गया। आज के समय में कोरोना टेस्टिंग की सुविधा हर जिले में मौजूद है। पिछले साल महामारी शुरू हुई तो यह सुविधा महज एक स्थान पर थी। विपक्ष को भी जानकर ताज्जुब होगा कि आजादी के बाद से 2005 तक बिहार में मेडिकल कॉलेजों की संख्या केवल आठ थी, जिसमें से दो निजी मेडिकल कॉलेज थे। पिछले 15 साल में हमारी सरकार ने 4 नए सरकारी मेडिकल कॉलेज खोले गए हैं। तीन नए निजी मेडिकल कॉलेज खुल चुके हैं। अगले चार साल में प्रदेश में मेडिकल कॉलेज की संख्या बढ़कर 28 हो जाएगी। मतलब, 11 नए मेडिकल कॉलेज और खोले जाएंगे।

कोरोना संक्रमण को छोड़िए, आम बच्चों को टीका लगवाने में पूर्व की सरकारें नाकाम रही थीं। चाहे वह राजद हो या कांग्रेस, हर किसी ने केवल जनता को बांटकर शासन करना ही अपना कर्तव्य समझा। वर्ष 2005 तक प्रदेश में टीकाकरण का कवरेज महज 32 फीसदी था। नीतीश सरकार ने इसको को 86 फीसदी के स्तर पर ले जाने में कामयाबी हासिल की है। सभी को टीकाकरण की व्यवस्था पर काम हो रहा है। कोरोना का टीका तो सरकारी व निजी अस्पतालों में मुफ्त लगाने की व्यवस्था हमारी सरकार ने की है। आप देख लीजिए 2005 में चिकित्सा का बजट 278 करोड़ रुपए था। मतलब एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सरकार की ओर से 33 रुपए 55 पैसे सरकार की ओर से खर्च किए जा रहे थे। वित्तीय वर्ष 2021-22 में स्वास्थ्य विभाग का बजट 13,264.87 करोड़ रुपए का रहा है। अगर प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता पर सरकार के खर्च को देखेंगे तो करीब 1125 रुपए आता है। इस प्रकार राजद शासनकाल से यह बढ़ोत्तरी साढ़े 33 गुणा है।

बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराना सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश में थी। कांग्रेस व राजद की सरकारों ने लोगों को अशिक्षित रखकर, बांटकर शासन किया। बच्चों को चरवाहा स्कूल जैसी सुविधाएं दी गईं। स्कूलों में शिक्षकों की कमी के कारण केंद्र सरकार से लेकर तमाम संस्थानों ने ज्ञान की इस भूमि पर तरह-तरह के आक्षेप लगाए। इसको व्यवस्थित करने का कार्य मुख्यमंत्री ने अपने बेहतरीन नेतृत्व के दम पर किया। असर पहले ही कार्यकाल में दिखा। बिहार में साक्षरता दर 2001 में 47.0 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 63.8 प्रतिशत हो गई। एक दशक में यह बढ़ोतरी 16.8 प्रतिशत की रही। एक दशक में यह बढ़ोतरी देश के सभी राज्यों के बीच सर्वाधिक रही। साक्षरता दर में इस बढ़ोत्तरी को दो कालखंड में बांटकर देख सकते हैं, 2005 तक और फिर नीतीश शासनकाल में। इसमें लोगों को स्कूल से जोड़ने के लिए सबसे अधिक काम हुए।

वर्ष 2001 में पुरुष साक्षरता दर 60.3 प्रतिशत थी और महिला साक्षरता 33.6 प्रतिशत। इनके बीच 26.7 प्रतिशत का अंतर था। वर्ष 2011 में पुरुष साक्षरता दर 73.4 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर 53.3 प्रतिशत हो गई। लैंगिक विषमता घटकर 20.1 प्रतिशत रह गई। आने वाले समय में इसमें और कमी आएगी, इतना तय मानिए। हम 2002-03 से 2009-10 के अवधि की ही बात करें तो आपको अंतर साफ हो जाएगा। अब तो नामांकन दर में हम 100 फीसदी का आंकड़ा छूने वाले हैं। ड्रॉप रेट घट चुका है। माध्यमिक स्तर पर छात्राओं की संख्या छात्रों से अधिक है। इसलिए, यह आंकड़े आपको आइना दिखाएंगे।

पूर्व के शासनकाल में बच्चों को स्कूल लाने की कोई व्यवस्था ही नहीं की गई। वर्ष 2002-03 से 2009-10 के बीच प्रारंभिक कक्षाओं में नामांकन 8.2 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा। 2002-3 से 2009-10 के बीच उच्च प्राथमिक कक्षाओं में नामांकन 22.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा। उच्च शिक्षा के मामले में अनुसूचित जाति के बच्चों का नामांकन 22.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा, जो सामान्य तबके की अपेक्षा अधिक रहा। सीएम नीतीश कुमार जी, समावेशी विकास का केवल नारा नहीं देते हैं। वे इसे लागू करने में विश्वास रखते हैं। छात्राओं को स्कूल से जोड़ा गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक इसका असर दिख रहा है। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों का नामांकन 17.9 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रहा, जबकि छात्राओं के नामांकन में 23.7 प्रतिशत की वार्षिक बढ़ोतरी दर्ज की गई। असर मैट्रिक परीक्षा में छात्रों से अधिक छात्राओं की संख्या के रूप में सामने आया है। हर क्षेत्र में विकास हो रहा है। (लेखक पूर्व विधान पार्षद हैं)

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