NEWSPR/DESK : लोग कहते तो यही हैं कि भतीजे की करतूत से चुनाव में चोट खाए चाचा ने सगे चाचा को मोहरा बनाया और मात दे दी। बहरहाल सगे चाचा सौतेले से भी ज्यादा मौकापरस्त निकले। उनकी उफान मारती महत्वाकांक्षा से ताजातरीन जख्मी चिराग पासवान जिस राम के हनुमान होने का दम्भ भर रहे थे उनसे भी कोई संजीवनी मिलती जब नहीं दिखाई दी तो लोकतंत्र के भगवान जनता जनार्दन की शरण में जाना मुनासिब समझा। 5 जुलाई से लोजपा (माइनस पशुपति कुमार पारस गुट) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग अपने दिवंगत पिता और फ़िलहाल अपने दगाबाज चाचा के कर्मक्षेत्र हाजीपुर से आशीर्वाद यात्रा पर निकलने वाले हैं।
बिहार की राजनीति के अहम किरदार हैं पप्पू यादव। जन अधिकार पार्टी प्रमुख हैं। पूर्णिया, मधेपुरा, सुपौल से लेकर पटना और दिल्ली तक जरूरतमंदों के सुख-दुःख के साथी बनते हैं। संकट मोचने हाजिर रहते हैं। फिलहाल हिरासत में हैं। अस्पताल में भर्ती हैं। उन्हें हिरासत से मुक्त कराने के लिए जन अधिकार पार्टी के कार्यकर्ता नेता आंदोलनरत हैं।
पप्पू यादव ने अब चिराग पासवान का भी सुख-दुःख बांटने का एलान किया है। इस यात्रा को हिरासताधीन पप्पू यादव ने न सिर्फ अपना समर्थन देने का वादा किया है बल्कि इस यात्रा में चिराग के ‘रथ’ का सारथी बनने का इरादा जाहिर किया है। बहरहाल पहले वह हिरासत से मुक्त तो हो जाएं। और यह तो विशुद्ध ‘प्रभु’ इच्छा पर है।
अब सवाल यह उठता है कि पप्पू यादव संकट में फंसे चिराग का साथ निभाने को इतने उतावले क्यों हैं? आखिर उनकी आशीर्वाद यात्रा के रथ का सारथी बनने की यह व्यग्रता कैसी? इसके निहितार्थ बहुत सिंपल हैं। कोई भी समझ सकता है।
सभी जानते हैं कि विगत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पप्पू यादव के जन अधिकार पार्टी का खाता भी न खुल सका। कभी पति-पत्नी दोनों मेरा मतलब है पप्पू यादव और मैडम पप्पू यादव यानि रंजीत रंजन लोकसभा सदस्य हुआ करते थे। जनता ने इस बार उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद नहीं दिया।
यह बात तब और भी उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ समय से उनकी छवि संकट में मददगार और हमेशा जनता की आवाज उठाने वाले राजनेता की बनी है। वह हमेशा उपलब्ध रहते हैं। दूसरों के सुख-दुःख में शरीक होते हैं। पप्पू यादव की गिनती बरसाती मेढ़क जैसे चरित्र वाले राजनेताओं सरीखी नहीं हैं जो सिर्फ चुनावी मानसून के आने पर टर्रटोंय करते हैं। जाहिर है वह भी इस मौके का थोड़ा फायदा उठाना चाहेंगे। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। राजनीति में लोग अपना इतना नफा नुकसान तो देखेंगे ही।
जनता के रुझान से पता चल रहा है कि पासवान समाज का स्नेह स्व. रामविलास पासवान के पुत्र और राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग पासवान के साथ बना हुआ है। उनके बागी चाचा पशुपति कुमार पारस ने राजनीतिक साजिश का मोहरा बन सांसदों की मदद से लोजपा को दो फाड़ भले ही कर दिया हो, लेकिन जनता का विश्वास हासिल नहीं कर पाए हैं। जनता खासतौर पर पासवान समाज उन्हें भाई की कृपा पर राजनीतिक सफलता हासिल करने वाला परजीवी नेता मानता है और उनके एक स्वतंत्र राजनीतिक वजूद होने की संभावना को सिरे से खारिज करती है। कहने का मतलब साफ है कि पासवान समाज अभी भी चिराग के साथ है। पप्पू यादव इस बात को भली भांति जानते हैं। और वह निश्चित तौर जाप और लोजपा के बीच मजबूत नजदीकी चाहेंगे। कम या ज्यादा, फायदा दोनों दलों को मिलेगा।
वैसे यह भी सच है कि पप्पू यादव ऐसे ‘पोलिटिकल प्रोपेलेंट’ नहीं हैं जो चिराग के सियासी रॉकेट को इतना एक्सेलरेशन दे सकें कि वह सत्ता की कक्षा में स्थापित हो जाएं। पप्पू यादव जिस यादव समाज से आते हैं उस समाज का भी व्यापक समर्थन उनके साथ नहीं है। अगर रहता तो वह सियासी तौर पर ज्यादा कामयाब रहते। यादव समाज अभी भी लालू जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव के साथ है और विधानसभा चुनाव में मिली कामयाबी इसकी पुष्टि भी करती है।
जाहिर तौर पर चिराग की लोजपा का अगर राजद से गठबन्धन होता है तो पासवान, यादव और मुस्लिम जो कि भाजपा विरोधी होने के कारण राजद के साथ है, एक मजबूत जातीय वोट समीकरण बन सकता है। राजद में पप्पू यादव की स्वीकार्यता कितनी है, सभी जानते हैं। तेजस्वी सियासी तौर पर पप्पू यादव के साथ जरा भी हमदर्दी नहीं रखते हैं। वजह जातीय आधार वोट बैंक पर कब्जा कायम रखने और इसे किसी भी सूरत में नहीं खोने देने की है। तो राजद, लोजपा और जाप की तिकड़ी नहीं बन सकती।
चिराग भी इस बात से भली भांति वाकिफ होंगे कि लोजपा और जाप से कहीं ज्यादा प्रभावी समीकरण लोजपा और राजद का होगा। और यही समीकरण चिराग और तेजस्वी के ‘कॉमन चाचा’ को सियासी मात दे सकता है। अब आप कहेंगे कि क्या चिराग तेजस्वी की छत्रछाया में अपना अलग वजूद कायम कर सकेंगे? तो इस बात को अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिए कि इस गठबन्धन के बहुमत पाने की स्थिति में सत्ता की कमान तो तेजस्वी के ही हाथ में होगी। चिराग को डिप्टीगिरी स्वीकार करना होगा और यही बड़ी बात होगी। दूसरा कोई समीकरण उन्हें सत्ता की दहलीज के दर्शन नहीं करा पाएगा।
तो पप्पू यादव भले ही चिराग का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार करें लेकिन इसके बावजूद भी सत्ता उनकी पहुंच से अभी कोसों दूर रहेगी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पप्पू यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी से कम कुछ नहीं चाहिए और यह महत्वाकांक्षा उन्हें सत्ता तो दूर एक मजबूत चुनावी राजनीतिक गठबन्धन से भी महरूम करा देता है। बात कड़वी है, लेकिन यही हकीकत है।
– विमलेन्दु सिंह (वरिष्ठ पत्रकार )