नौ मई 1540 को कुंभल गढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। महाराणा प्रताप का हल्दी घाटी का युद्ध इतिहास से कहीं जा नहीं सकता। लेकिन जो युद्ध उनको महाराणा प्रताप बनाता है वह हल्दी घाटी का युद्ध नहीं उनका 20 साल के संघर्ष की परिणति दिवेर का संग्राम है। जो उनके साहस शौर्य और समर्पण को प्रस्तुत करता है। अकबर जब गद्दी पर बैठा उत्तर भारत के संपूर्ण हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया लेकिन राजपूताना का सिसौदिया वंश एक ऐसा वंश था जो राणा प्रताप के अधीन था जिसको वह जीत नहीं पा रहा था। यह क्षेत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि गुजरात का पूरा व्यापार इसी भेत्र से होकर था।
यह सामरिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण था क्योंकि सारी राजपूताना सेना उसके सामने घुटने टेक चुकी थी, सिवाय सिसौदिया वंश के। जब तक यह उसके अधीन नहीं आता था तब पूरे हिंद की संप्रभुता उसके पास नहीं आ सकती थी। इसके लिए 1576 में हल्दी घाटी का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। जिसमें महाराणा प्रताप के पास मात्र 5000 की सेना थी। और सामने जो मुगल फोर्स थी वह लगभग 30 हजार की थी। लेकिन उसके बाद भी यह युद्ध इतना भयानक हुआ कि पांच से छह घंटे चलने वाले इस युद्ध में कई मुगल सैनिक और सेनानायक मारे गए। राणा प्रताप मुगल सेना को क्षति पहुंचा कर निकल गए। उनके घोड़े चेतक का शौर्य इसमें दिखा जिसमें वह राणा प्रताप को सुरक्षित निकाल ले जाता है और अपने प्राणों की आहुति दे देता है। लेकिन इसके बावजूद मुगल सेना को निर्णायक जीत नहीं मिल पाई।
महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ और उदयपुर के क्षेत्र में चले गए थे और ये इतनी भयानक लड़ाई थी कि राजा मानसिंह और मुगल सेना उनको पकड़ने के लिए उनके पीछे भी नहीं जा सकी क्योंकि उन्हें पता था कि ये कहीं छिपे होंगे और फिर से अटैक कर देंगे और हमें बुरी तरह नुकसान उठाना पड़ेगा
इसलिए मानसिंह को वापस लौटना पड़ा। वह वापस जाते हैं और पराजय को लेकर अकबर इतना नाराज होता है कि वह उनको अपने राजदरबार में घुसने नहीं देता है।
असली युद्ध इसके बाद शुरू होता है महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ व इसके आसपास के जंगलों में रहते हैं। अकबर यहीं पर चुप नहीं होता है। 1576 की इस घटना के बाद 1577 में फिर से सेना भेजी जाती है यह सेना शाबाज हुसैन, सैयद हाशिम, सैयद कासिम और मानसिंह के नेतृत्व में जाती है। तीस हजार की सेना फिर से राणा प्रताप को ढूंढने जाती है। यह सेना भी हारती है और निर्णायक जीत किसी को नहीं मिलती है। अकबर बहुत नाराज होता है और 1578 में फिर से सेना भेजता है। अकबर के लिए सिसौदियाओं को हराना कितना महत्वपूर्ण था इससे समझा जा सकता है। यह सेना भी शहबाज खान के अधीन जाती है और बहलौल खान सेनापति का भी नाम आता है जो लंबे कद का बहुत ही क्रूर था। ये सेना भी सफल नहीं होती। दोनों पक्षों में किसी को निर्णायक जीत नहीं मिलती है। इसके बाद 1579 में फिर से मुगल सेना जाती है जिसमें शहबाज खान, बहलौल खान और मान सिंह के नेतृत्व में लेकिन यह सेना भी राणा प्रताप को हरा नहीं पाती है। राणा प्रताप गुरिल्ला युद्ध कौशल से लड़ते हैं और मुगल सेना को पीछे हटना पड़ता है। 1580 में मुगल सेना फिर से हमला करती है। लगातार पांचवीं साल मुगल आक्रमण होता है। इस सेना का नेतृत्व मशहूर उर्दू कवि अब्दुल रहीम खानखाना कर रहे थे। इस बार भी मुगल सेना को सफलता नहीं मिलती और खाली हाथ वापस आती है। लेकिन इस दौरान मुगल सेना ने एक काम किया कि 36 पोस्ट बनाईं और हर जगह हजार दो हजार सैनिकों को तैनात किया। एक आंकलन के मुताबिक मुगल सेना का 40 से 50 फीसदी हिस्सा राणा प्रताप को हराने में लगा था। 1581 में राणा प्रताप पर कोई हमला नहीं होता। इसी समय भामाशाह जैसे नगर सेठ उनके पास आते है। भामाशाह ने कहते हैं कि इतने पैसे महाराणा प्रताप को दिये कि 25 हजार की सेना बिना किसी परेशानी के 12 साल तक रह सकती थी। भामाशाह का नाम इसीलिए अमर है। 16 सितंबर 1582 का दिन उदयपुर से अजमेर के बीच एक घाटी है दिवेर। ये घाटी राणा प्रताप चुनते हैं। यहां वह भील, कोल और राजपूताना की सेना बनाते हैं, ये विजयदशमी का दिन था। महाराणा प्रताप को यकीन था कि आज के दिन हमको आर या पार की लड़ाई लड़नी है। विजया दशमी के दिन जब पूरा भारत त्योहार मना रहा था 50 हजार की मुगल सेना के सामने दस -12 हजार की भील, कोल व राजपूतों की सेना युद्ध करती है, यह वही युद्ध है जिसमें बहलोल खान को राणाप्रताप ने तलवार के एक वार से दो टुकड़े कर दिया था। इसके बाद होता है 1971 के बंगलादेश युद्ध में 90 हजार सैनिकों के समर्पण से पहले का सबसे बड़ा समर्पण। 1582 में 36 हजार मुगल सेना महाराणा प्रताप के सामने समर्पण करती है। इस पूरे दिन चले युद्ध में मुगल सेना की निर्णायक हार होती है। और चित्तौड़ को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ महाराणा प्रताप के अधीन आ जाता है। उन्होंने जो शपथ खाई थी कि मैं उदयपुर के किसी महल में जाकर रहूंगा नहीं, पलंग पर सोऊंगा नहीं। वह प्रतिज्ञा इसी के साथ पूरी हो जाती है और राणा प्रताप का महाराणा बनने का सफर पूरा होता है।