NEWSPR डेस्क। हिंदू पंचांग के अनुसार, हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका व्रत रखने का विधान है। जीवित्पुत्रिका व्रत को जितिया या जिउतिया व्रत भी कहते हैं। यह व्रत सप्तमी से शुरू होकर नवमी तिथि तक चलता है। जितिया व्रत को महिलाएं संतान की लंबी आयु की कामना के लिए रखती हैं। इस साल यह व्रत 28 सितंबर से शुरू होकर 30 सितंबर तक रहेगा।
जितिया व्रत शुभ मुहूर्त : 28 सितंबर की शाम 06 बजकर 16 मिनट से आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि शुरू होगी। यह 29 सितंबर की रात 8 बजकर 29 मिनट तक रहेगी। अष्टमी तिथि के साथ व्रत समाप्त नहीं होगा। व्रत का पारण 30 सितंबर को किया जाएगा।
व्रत पारण का समय : जीवित्पुत्रिका व्रत रखने वाली माताएं 30 सितंबर को सूर्योदय के बाद दोपहर 12 बजे तक पारण करेंगी। मान्यता है कि जीवित्पुत्रिका व्रत का पारण दोपहर 12 बजे तक कर लेना चाहिए।
जीवित्पुत्रिका व्रत की पूजा विधि : जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर स्नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद दूसरे दिन सुबह-सवेरे स्नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही महिलाएं अन्न ग्रहण कर सकती हैं। मुख्य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोर भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।
महाभारत काल से है संबंध : जीवित्पुत्रिका व्रत का संबंध महाभारत काल से है. दरअसल महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा अपने पिता की मौत से बहुत क्रोधित थे और हर हाल में पांडवों से बदला लेना चाहते थे। इसलिए वह पांडवों के शिविर में घुस गए और उसमें सो रहे पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला। वे सभी द्रौपदी की संताने थे। अर्जुन ने अश्वत्थामा की मणि छीन लिया और क्रोध में आकर अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को मार डाला।
श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसके गर्भ में पल रहे बच्चें को पुन जीवित कर दिया। भगवान कृष्ण की कृपा से जीवित होने वाले इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका नाम दिया गया। इसक बाद से संतान की लंबी उम्र के लिए हर साल जितिया का व्रत रखा जाता है।
जितिया व्रत की कथा : पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार एक पेड़ पर गुरुड़ और लोमड़ी रहते थे. इन दोनों ने कुछ महिलाओं को जितिया व्रत करते हुए देखा, तो इनके मन में भी जितिया व्रत करने का विचार आया। दोनों ने भगवान श्री जीऊतवाहन के समक्ष व्रत रखकर विधि-विधान से पूजा-अर्चना करने का संकल्प लिया। परंतु जिस दिन जितिया व्रत था उसी दिन गांव के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया। उसके शाव को देखकर उसे लालच आ गयी. लोमड़ी अपनेको रोक न पाई और चुपके से भोजन कर लिया और उसका व्रत टूट गया।
दूसरी ओर वहीं गरुड़ ने व्रत का पालन करते हुए उसे पूरा किया। परिणामस्वरुप, दोनों अगले जन्म में एक ब्राह्मण के यहां चील, बड़ी बहन शीलवती और लोमड़ी, छोटी बहन कपुरावती के रूप में जन्मीं। चील शीलवती को एक-एक करके सात लड़के पैदा हुए। जबकि लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही मर जाते। शीलवती के सभी लड़के बड़े होकर सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए और उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया। यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई।