NEWSPR / DESK : आजकल जनसंख्या नियंत्रण के पैमानों की चर्चा का काफी शोरगुल है। जो मानक तैयार हुए हैं वे काफी डरावने हैं। लोग समझ नहीं पा रहे हैं क्या होगा ? सबसे अहम बात ये है कि ये किन पर लागू होगा और कब से ? अमूनन जितने भी कानून बनते हैं वे अमल में कब से आएंगे इस जानकारी के साथ आते हैं। मान लीजिए ये सन् 1922 से लागू होते हैं तो इसका मतलब यह होगा कि यह 1922 में जन्मे बच्चों पर और उनके माता-पिता पर लागू होगा। जो ठीक माना जाएगा और स्वीकार्य होगा लेकिन इसे CAA जैसा पिछले 50 या 100 साल के लोगों के परिवार पर लागू होगा तो विरोध भी उसी आंदोलन जैसा होगा, क्योंकि इसे लागू किया जाना मुश्किल ही नहीं असंभव है। उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून के जिस ड्राफ्ट को योगी सरकार द्वारा तैयार किया गया है। इस कानून के मुताबिक राज्य में 2 से अधिक बच्चों के माता-पिता को स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकर व लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभ नहीं लेने दिए जाएंगे। इस कानून के सामने आने के बाद से ही देश में इस पर बहस छिड़ चुकी है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यदि यह कानून राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए भी लागू हो तो क्या होगा? जानकारी के मुताबिक उत्तर प्रदेश में खुद भारतीय जनता पार्टी के आधे से अधिक विधायकों के 2 से अधिक बच्चे हैं। ऐसे में अगर कानून यूपी में लागू किया जाता है तो क्या विधायक राज्य में चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिए जाएंगे। यूपी विधानसभा की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक कहा जा रहा है कि भाजपा के 304 में से 152 विधायकों के 2 से ज्यादा बच्चे हैं. बताया जा रहा है कि इनमें से कुछ विधायकों के 4-5 और 6 से 8बच्चे भी हैं। सिर्फ 103 ऐसे विधायक हैं जिनके 2 बच्चे हैं और मात्र 34 विधायकों के इकलौती संतान है l
आर्थिक तौर पर कमज़ोर लड़की ही शोषण की शिकार
अब आप ये बताइए क्या ये संभव होगा ? नौकरी का मसला भी ऐसा ही है। पहली बात नौकरियां ही नहीं निकालनी हैं । वैसे उ. प्र. में अधिकांश परिवार कृषि कर्म से जुड़े हैं। परिवार का पहला बच्चा कृषि संभालता, दूसरा फेरी लगाता है या बिजनेस में स्थान बनाया है, तीसरा फौज में जाता है। इसके बाद स्टेट या बाहर नौकरी तलाशता है। नौकरी की चाहत लड़कियों में बढ़ रही है। वे जिस किसी नंबर पर हों उन्हें स्वावलंबी या मोदी के अनुसार आत्मनिर्भर बनाना सरकार का दायित्व है क्योंकि आर्थिक तौर पर कमज़ोर लड़की ही घरेलू हिंसा और अन्य तरह के शोषण की शिकार है। ऐसे में यह कानून क्या मायने रखता है ? रहा कल्याणकारी योजनाओं के लाभ का सवाल तो यह जान लीजिए कि जो नागरिक हैं, जिनका वोट आप लेते हैं उन्हें इन लाभों से वंचित कैसे रख सकते हैं। उन्हें जीवन जीने के तमाम अधिकार हमारे संविधान ने प्रदत्त किए हैं। मानवाधिकार के अन्तर्गत उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है।
अब तक 12 राज्यों ने दो बच्चों का मानदंड लागू किया
हाल के दिनों में, उत्तर प्रदेश और असम जैसे राज्यों और लक्षद्वीप जैसे केंद्र शासित प्रदेशों ने सरकारी नौकरी पाने या पंचायत चुनावों के लिए नामांकित या निर्वाचित होने के लिए पूर्व शर्त के रूप में दो बच्चों के मानदंड को लागू करने का प्रस्ताव दिया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्य अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार दो बच्चों के मानदंड के विभिन्न पहलुओं को लागू कर रहे हैं। अब तक 12 राज्यों ने दो बच्चों का मानदंड लागू किया है। इनमें शामिल हैं राजस्थान (1992), ओडिशा (1993), हरियाणा (1994), आंध्रप्रदेश (1994), हिमाचल प्रदेश (2000), मध्य प्रदेश (2000), छत्तीसगढ़ (2000), उत्तराखंड (2002), महाराष्ट्र (2003), गुजरात (2005), बिहार (2007) और असम (2017)। इनमें से चार राज्यों ने मानदंड को रद्द कर दिया है – छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा।
दुष्परिणाम जानिये क्या उजागर हुए
जिन राज्यों मे पंचायत चुनाव में दो बच्चों के मानदंड लागू किए गए। इसके जो दुष्परिणाम आए वो देखिए, एक पूर्व वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी (आईएएस) निर्मला बुच द्वारा पांच राज्यों के एक अध्ययन में पाया गया कि, इसके बजाय, दो-बाल नीति अपनाने वाले राज्यों में, लिंग-चयनात्मक और असुरक्षित गर्भपात में वृद्धि हुई थी। स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए पुरुषों ने अपनी पत्नियों को तलाक दे दिया और परिवारों ने अयोग्यता से बचने के लिए बच्चों को गोद लेने के लिए छोड़ दिया। क्या हम ऐसा समाज चाहेंगे ? कदापि नहीं l
शिक्षा को हो प्रचार-प्रसार, लेने दें स्वेच्छिक निर्णय
इसलिए बेहतर यही होगा कि केरल और तमिलनाडु की तरह शिक्षा के ज़रिए स्वेच्छिक निर्णय लेने दें। दोनों राज्यों में बच्चों की संख्या स्वत: निर्धारित हो रही है। देश में वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में मंदी और प्रजनन दर में गिरावट का अनुभव करना शुरू कर दिया है, जनसंख्या पर भारतीय जनगणना के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि 2001-2011 के दौरान दशकीय विकास दर 1991-2001 के 21.5% से घटकर 17.7% हो गई थी। इसी तरह, भारत में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) घट रही है, जो 1992-93 में 3.4 से घटकर 2015-16 में 2.2 हो गई (एनएफएचएस डेटा) कोरोना की वजह से देश में लाखों लोग मरे हैं। कोरोना अभी भी जानलेवा बना हुआ। फिर उत्तरप्रदेश में तो मानव त्रासदी का लेखा-जोखा तो गंगा और उसकी सहायक नदियों ने दिया भी है। ऐसे हालात में जनसंख्या नियंत्रण की बात किसी सनक से कम नहीं।
क्या महज चुनाव को देखते लाया जा रहा कानून
कुल मिलाकर यह कानून महज़ लोगों को, ख़ासकर एक विशेष कौम की मन:स्थिति ख़राब करने वाली है। लगता है चुनाव जीतने के लिए किसी दंगा फसाद की तैयारी की जा रही है। लेकिन अच्छी बात यह है कि बहुसंख्यक वर्ग ही इसके विरुद्ध आवाज़ उठा रहा है। उसे बैचेनी इस बात की है कि साक्षी महराज, प्रज्ञा जैसे सांसद और संघ प्रमुख जहां आबादी बढ़ाने की गुहार लगाते रहे हैं। वहां योगी का यह कैसा फैसला है? यह भी ख़बर है कि चार बच्चों के पिता रविकिशन संसद में भी जनसंख्या नियंत्रण बिल रखने वाले हैं। देखना यह है कि इस बिल को कितना समर्थन मिलता है क्योंकि बात चाहे सांसदों या विधायकों की हो वो सब इस बिल से प्रभावित होंगे। जहां तक चुनाव लड़ने की बात है तो इसमें विधायक और सांसदों को भी शामिल करना चाहिए। तब ही बात बनेगी। कहीं यह भी अल्प संख्यकों के आंदोलन की राह देखते- देखते टांय टांय फिस्स ना हो जाए। वैसे अब तक हम जान चुके हैं जनता के दिलो -दिमाग को परेशान कर भटकाने में भाजपा माहिर है और वह इस प्रयोग से जनता को ज्वलंत मुद्दों से दूर ले जाती है l