नीतीश कुमार बिहार में करेंगे बड़ा खेला, तेजस्वी यादव को किसी भी हाल में नहीं बनने देंगे सीएम पद!

Patna Desk

NEWSPR डेस्क। पटना बिहार में खूब सियासी हंगामा मचा है, लेकिन सीएम नीतीश कुमार ने मौन साध लिया है। तेजस्वी यादव के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने के बाद विपक्षी दलों के नेता नीतीश को उकसा रहे हैं। पर अपनी ओर से कोई भी प्रतिक्रिया दिये बगैर नीतीश चुपचाप अपने दल के सांसदों-विधायकों से सलाह-मशविरा कर रहे हैं। इतना तो तय है कि वे तेजस्वी यादव को किसी भी सूरत में सीएम नहीं बनने देना चाहते।

यह खेल बीजेपी या कोई और दल करे, उससे पहले खुद नीतीश कुमार कर सकते हैं। एनडीए से अलग होकर और आरजेडी का सपोर्ट लेकर नीतीश मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन आरजेडी की शर्तों के मुताबिक वे तेजस्वी यादव के लिए बिहार की गद्दी आसानी से सौंप कर दिल्ली नहीं जाने वाले। आरजेडी में तेजस्वी को सीएम बनाने की हड़बड़ी है। हालांकि तेजस्वी कह चुके हैं कि उन्हें सीएम बनने की कोई हड़बड़ी नहीं है। सूत्र बताते हैं कि आरजेडी के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने नीतीश को इसका संकेत दे दिया है कि वे अब गद्दी खाली करें। अगली विपक्षी बैठक में नीतीश कुमार का विपक्ष के प्रस्तावित फ्रंट का कन्वेनर बनना तय है। आरजेडी का संकेत नीतीश समझ रहे हैं। पहले उनकी भी इच्छा राष्ट्रीय राजनीति में जाने की थी, लेकिन विपक्ष के जिन 15 दलों को उन्होंने पटना में जुटाया, उनमें दो दलों पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा है। आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के अंदाज को देख कर नीतीश को विपक्षी एकता की कामयाबी पर अब संदेह होने लगा है। इधर महाराष्ट्र में एनसीपी में मचे घमासान से नीतीश के कान खड़े हो गए हैं।

आरजेडी की हड़बड़ी को इससे भी समझा जा सकता है कि लालू ने ही नीतीश की मुलाकात सोनिया गांधी से पहली बार कराई थी। विपक्षी एकता की पहली बैठक जब टल गई तो खुद लालू ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को अगली बैठक में आने के लिए फोन किया। तेजस्वी यादव एमके स्टालिन को न्यौता देने खुद तमिलनाडु गए। पटना में 23 जून को जब 15 विपक्षी दलों के नेता जुटे तो लालू ने बढ़-चढ़ कर उसमें भाग लिया। सीधे शब्दों में कहें तो लालू ने महफिल लूट ली। यानी विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार ने जितनी कोशिश की, उससे अधिक लालू परिवार ने की। हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव और ममता बनर्जी को नीतीश से अधिक भरोसा लालू-तेजस्वी पर दिखा।

तेजस्वी यादव की मंशा अभी बिहार की राजनीति तक ही खुद को सीमित रखने की है। फिर भी राष्ट्रीय राजनीति में आरजेडी की इतनी रुचि क्यों है, यह बात समझना किसी के लिए मुश्किल काम नहीं। तेजस्वी को मलाल है कि बिहार की सरदारी से वे महज गिने-चुने कदमों से 2020 में पीछे छूट गए थे। विधानसभा का चुनाव तेजस्वी ने अपने दम पर लड़ा था। महागठबंधन में वाम दलों को शामिल करने का फैसला उनका ही था। चुनाव प्रचार में जहां एनडीए के दिग्गज नेता उतरे, वहां अकेले तेजस्वी महागठबंधन के स्टार प्रचारक थे।

तेजस्वी ने विधानसभा में सर्वाधिक सीटें लाकर अपनी योग्यता भी साबित कर दी थी। अपनी ताकत आजमाने के लिए उन्होंने न अपने पिता लालू यादव का सहारा लिया और न मां राबड़ी देवी को मंचों पर बिठाया। यहां तक कि चुनावी पोस्टर-बैनर से दोनों को दूर ही रखा। चुनाव बाद असददुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के पांच में से चार विधायकों को भी आरजेडी में शामिल कराया। आरजेडी के पास नीतीश के विधायकों को छोड़ कर सरकार बनाने के लिए सिर्फ 6 विधायकों की जरूरत है।

नीतीश कुमार की परेशानी यह है कि एक साथ उनके सिर पर कई खतरे मंडराते नजर आ रहे हैं। पहला यह कि जिन 15 विपक्षी दलों को उन्होंने पटना में एक मंच पर जुटा कर खूब वाहवाही लूटी, उनमें आप और टीएमसी जैसी पार्टियां अपने आचरण से अब तक यही साबित करती रही हैं कि वे विपक्षी एकता का मोर्चा बनने ही नहीं देंगी। ममता बनर्जी को सिर्फ बंगाल की सत्ता से सरोकार है। राष्ट्रीय राजनीति में उनकी इतनी ही रुचि है कि अपनी पार्टी के अधिकाधिक सांसदों को भेज कर वे एहसास कराना चाहती हैं कि पंचायत से लेकर संसद तक उनकी पार्टी ताकतवर है।

आम आदमी पार्टी को जब से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है, तभी से उसे इस बात का गुरूर हो गया है कि अपने दम पर वह अपना विस्तार कर सकती है। दिल्ली के बाद पंजाब में कामयाबी ने आम आदमी पार्टी के हौसले बुलंद रखे हैं। अब उसे भरोसा हो गया है कि देर-सवेर वह देश भर में फैल जाएगी। यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल विपक्षी एकता के प्रति उतने उत्साह में नहीं दिखते। उल्टे वे तरह-तरह की शर्तों से अड़ंगा ही डाल रहे हैं।

विपक्षी एकता की कामयाबी में नीतीश कुमार को अब संदेह होने लगा है। उनकी चिंता इस वजह से है कि उन्होंने विपक्षी एकता का बीड़ा उठाया था। एकता के नाम पर चुप बैठी कांग्रेस को बार-बार उकसा कर नेतृत्व के लिए तैयार किया था। महाराष्ट्र की घटना के बाद उन्हें अब एहसास होने लगा है कि पहले खुद की पार्टी का अस्तित्व बचाना उनके लिए ज्यादा जरूरी है।

आरजेडी से उन्हें भय है कि कभी भी उनकी पार्टी के विधायकों को तोड़ कर वह सरकार बना सकती है। उधर बीजेपी से भी भय है कि कहीं महाराष्ट्र जैसी घटना को वह उनकी पार्टी के साथ अंजाम न दे दे। तेजस्वी की ताजपोशी के लिए आरजेडी में जो हड़बड़ी है, उससे नीतीश के मन में अब भय बैठ गया है। नीतीश यह भी जानते हैं कि दल बदल कानून की बात आएगी तो आरजेडी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए कि स्पीकर आरजेडी का ही है।

नीतीश के सामने तीसरा संकट महागठबंधन में सीटों के बंटवारे पर जेडीयू की हिस्सेदारी को लेकर है। पिछली बार यानी 2019 के लोकसभा चुनाव और 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से लड़-झगड़ कर उन्होंने बराबर सीटें ले ली थीं। जेडीयू का तब तर्क था कि विधानसभा में उसके विधायकों की संख्या बीजेपी से अधिक है। लोकसभा की सीटों के लिए जेडीयू ने विधानसभा की सीटों को आधार बनाया। अगर लोकसभा सीटों को आधार बनाते तो 2014 के चुनाव में जेडीयू दो सीटों पर ही सिमट गई थी।

महागठबंधन में सीटों के बंटवारे का आधार अगर विधानसभा की सीटों को बनाया जाता है तो जेडीयू को आरजेडी से आधी सीटें ही मिल पाएंगी। इसलिए कि आरजेडी के पास अभी 80 से अधिक विधायक है तो जेडीयू के महज 43 ही हैं। सीटों के बंटवारे का पैमाना खुद जेडीयू ने बीजेपी के साथ रहते तय किया था। अब वही उसके लिए घातक साबित हो सकता है। ऐसा हुआ तो पिछली बार जीतीं 16 लोकसभा सीटों में से उन्हें कुछ सीटें छोड़नी भी पड़ सकती हैं। भाजपा को बाध्य कर खुद नीतीश ने उसकी जीती पांच सीटें हथिया ली थीं।

इन्हीं संकटों से परेशान नीतीश कभी विधायकों-विधान परिषद के सदस्यों से मिल रहे हैं तो कभी सांसदों से। वे अपने विश्वासपात्र नेताओं से भी मिल रहे हैं, जो समय-समय पर उन्हें उचित सलाह देते रहे हैं। जेडीयू के सांसद और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश से हाल ही में उन्होंने मुलाकात की थी। राजभवन में सुशील मोदी से भी उनकी मुलाकात संयोगवश नहीं, बल्कि सलाह-मशविरे के लिए ही थी।

सुशील मोदी ने 2017 में महागठबंधन छोड़ कर बीजेपी के साथ आने में उनकी मदद की थी। हरिवंश के पीएम मोदी से बेहतर संबंध बताए जाते हैं। ये दोनों ऐसे व्यक्ति हैं, जो न सिर्फ नीतीश को उचित सलाह दे सकते हैं, बल्कि नीतीश के मन में अगर एनडीए में लौटने की इच्छा है तो उस दिशा में भाजपा और उनके बीच कड़ी का भी काम कर सकते हैं।

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