’रमजान’ इंसान के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है, मुरली मनोहर श्रीवास्तव से जानिए इसका महत्व

Patna Desk

NEWSPR डेस्क। माहे-रमज़ान इबादत, नेकियों और रौनक़ का महीना है. यह हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना होता है. इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाता है और भूखे-प्यासे रहकर खुदा की इबादत करने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं. इस माह में दोजख (नरक) के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत की राहें खुल जाती है.रोजा अच्छी जिंदगी जीने का प्रशिक्षण है जिसमें इबादत कर खुदा की राह पर चलने वाले इंसान का जमीर रोजेदार को एक नेक इंसान के व्यक्तित्व के लिए जरूरी हर बात की तरबियत देता है.

अल्लाह ने अपने बंदों पर 5 चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं

पूरी दुनिया की कहानी भूख, प्यास और इंसानी ख्वाहिशों के इर्दगिर्द घूमती है और रोजा इन तीनों चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है. रमजान का महीना तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है ताकि रोजेदारों में भले-बुरे को समझने की सलाहियत पैदा हो. इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने अपने बंदों पर 5 चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं जिनमें कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात शामिल है. रोज़े का फ़र्ज़ अदा करने का मौक़ा रमज़ान में आता है. कहा जाता है कि रमज़ान में हर नेकी का सवाब 70 नेकियों के बराबर होता है और इस महीने में इबादत करने पर 70 गुना सवाब हासिल होता है. इसी मुबारक माह में अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ुरआन नाज़िल किया था.

अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है

यह भी कहा जाता है कि इस महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है. इस महीने में ईशा की नमाज़ के बाद तरावीह पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. रमज़ान के महीने में जमात के साथ क़ियामुल्लैल (रात को नमाज़ पढ़ना) करने को ‘तरावीह’ कहते हैं. इसका वक्त रात में ईशा की नमाज़ के बाद फ़ज्र की नमाज़ से पहले तक है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में क़ियामुल्लैल में बेहद दिलचस्पी ली. आपने फ़रमाया कि ‘जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.रहमत और बरकत के नजरिए से रमजान के महीने को तीन हिस्सों (अशरों) यानि तीन पार्ट में बांटा गया है.

इस महीने के पहले 10 दिनों में अल्लाह अपने रोजेदार बंदों पर रहमतों की बारिश करता है.दूसरे अशरे में अल्लाह रोजेदारों के गुनाह माफ करता है और तीसरा अशरा दोजख यानि नरक की आग से निजात पाने की साधना को समर्पित किया गया है. रोजे को अगर हम वैज्ञानिक पहलू से देखें तो पैगम्बर मोहम्मद ने फरमाया कि रोजे रखा करो स्वास्थ्य रहा करोगे.हदीस में भी इसका जिक्र है.जिस में यह बताया गया है कि रोजा बीमारियों से बचाता है. जिस की पुष्टि आधुनिक मेडिकल साइंस से भी होती है. जो यह बताती है कि कभी-कभी कुछ समय के पश्चात खाना-पीना बंद करके अपने पाचन क्रिया को जिस पर पूरे शरीर का स्वास्थ्य निर्भर करता है को खाली रख कर आऱाम दिया जाना चाहीए क्योंकि ऐसा करने से पेट में उपस्थित व्यर्थ पदार्थ जल कर साफ हो जाता है।

डॉक्टरों की टीम रमजान में करती है पड़ताल

जिससे पाचन क्रिया पुन सही तरीके से कार्य करने लगता है. जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिका के माहिर डॉक्टरों की टीम रमजान में पर इस बात की पड़ताल करने के लिए आई कि रमजान में मुसलममानों के कान नाक, मुंह और गले की बीमारी कम हो जाती है. इस के परीक्षण के लिए उन्होंने पाकिस्तान के तीन शहरों करांची लाहौर एवं फैसलाबाद का चुनाव किया. इस सर्वे के बाद उन्होंने ने जो रिपोर्ट पेश की उसका खुलासा थाचूंकि मुसलमान नमाज पढ़ते हैं और खास तौर पर रमजान में ज्यादा पाबंदी से पढ़ते हैं इसलिए वजू अर्थात नमाज से पूर्व हाथ, पांव, मुंह, गला एवं नाक की सफाई करने से नाक, कान औऱ गले की बीमारी कम हो जाती है. खाना कम खाने से दिल की बीमारियां कम हो जाती है. चूंकि रमजान में डाइटिंग करते हैं इसलिए दिल की बीमारियों के शिकार कम होते हैं.

इस्लाम धर्म किसी इंसान पर उसकी ताकत से ज्यादा बोझ डालने के खिलाफ है यही वजह है कि बीमार, मुसाफिर, बुढ़े, गर्भवती एवं दूध पिलाने वाली महिलाओं एवं बच्चों पर रोजा रखने की बंदिश नहीं है. कुरआन शरीफ में अल्लाह तआला फरमाते हैं कि रोजे रखवाने का मकसद तुम्हे भूखा रखना नहीं है, बल्कि तुम्हें रोजा रखने का आदेश इसलिए दिया गया है कि तुम अपनी इंन्द्रियों पर काबू पाकर परहेजगार बन सको. आमतौर पर दिनभर कुछ न खाने पीने को रोजा समझा जाता है. लेकिन रोजे का अर्थ इससे अधिक व्यापक है. रोजे में शरीर के अलग-अलग अंगों का रोजा इस प्रकार है.

पेट को खाने एवं पीने से कान को गलत बातों को सुनने से, जुबान को झूठ, किसी को पीठ पीछे बुराई करने एवं दूसरों का दिल दुखाने वाले गलत शब्दों के प्रयोग से आंखों को गलत चीजों एवं किसी की मां बहन एवं बेटी को गलत निगाह से देखने से हाथ से किसी को नुकसान पहुंचाने से पांव से किसी को नुकसान पहुंचाने से एवं गलत रास्ते पर चलने से बचाना एवं दिल का रोजा गलत इरादों से बचकर ईश्वर की तपस्या करना है. रोजेदारों के घर में जब सब कुछ होता है और उन्हें कोई रोकने-टोकने एवं देखने वाला नहीं होता है तब वो भी मानते हैं कि ईश्वर मुझे देख रहा है. और ऐसा मानकर भूख प्यास की परेशानी तो झेलते हैं पर छुपकर कुछ खाते पीते नहीं है.

रोजे को समझकर रखने की नजह से ईश्वर के प्रति उनकी आस्था मनोवैज्ञानिक रूप से इस कद्र मजबूत हो जाते हैं कि आम दिनों में भी कोई ऐसा कार्य जिसे धर्म में मना किया गया हो दुनिया की कोई भी शक्ति या लालच करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है. रोजा केवल एक उपासना पद्धति एवं ईश्वर को प्रसन्न करने का तरीका भर नहीं है. मानव को ईश्वर ने अशरफुल मखलुकात यानि सारे प्राणियों में सर्वोत्तम बनाया है. सबसे पहले मुसलमानों को रोजा रखकर भूख की सिद्दत को समझने का मौका दिया जाता है कि यह सोचो कि तुम्हारे वो भाई जो गरीब हैं जिनके पास दो जून की रोटी नहीं होती है उनके दुखों को समझो और इस महीने में अपने माल का जकात अर्थात आवश्यकता से अधिक धन का ढाई प्रतिशत दान गरीबों को दान देने से इसका पुण्य सत्तर गुणा बढ़ा हुआ माना जाता है.

कुरआन शरीफ की सुरा-ए-बकरा की आयत नम्बर 22-23 में अल्लाह तआला फरमाते हैं ऐ मुसलमानों तुम पर रोजा फर्ज किया जाता है. जैसे कि तुमसे पहले के कौमों पर भी रोजा फर्ज किया था ताकि तुम्हारे अंदर परहेजगारी पैदा हो. यही वजह कि हर धर्म में कहीं फास्ट तो कहीं उपवास तो कहीं इस्टर के रूप में रोजा मौजूद है. इसके सामाजिक एवं स्वास्थ्य लाभ को देखकर अनेक विद्वान भी समय-समय पर ऐसा करने के लिए कहते रहते हैं हरित क्रांति के प्रणेता पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जब भारत के प्रधानमंत्री थे. उस समय भारत खाद्य समस्या का शिकार था. तब उन्होंने जय जवान जय किसान के साथ एक बात और कही थी. वह यह कि हर सोमवार को उपवास रखो.

यह उन्होंने किसी धार्मिक कारण से नहीं वरन उपवास रखकर अनाज की बचत करने की गरज से कहा था. क्योंकि इससे हमारे शरीर पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता है और लाखों टन अनाज की बचत के साथ स्वास्थ्य लाभ भी होता है. चीन के राष्ट्रपति जब मावत्जे तुंग थे और उस समय उनके सामने जब भुखमरी जैसी सामाजिक समस्या थी. तब उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया था कि खुद खाना खाते हुए अपने पड़ोसी और देखने वालों को भी शामिल कर लिया करो. खुद भूखे रहकर भूखों का एहसास पैदा करो. जिसे इस्लाम धर्म के मानने वाले पिछले 1400 सालों से रोजे के रूप में निभाते आ रहे हैं.

मरहबा सद मरहबा आमदे-रमज़ान है

खिल उठे मुरझाए दिल, ताज़ा हुआ ईमान है

हम गुनाहगारों पे ये कितना बड़ा अहसान है

या ख़ुदा तूने अता फिर कर दिया रमज़ान है…

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