नए भारत और नए बिहार की तस्वीरें विकास की चमकदार कहानियां सुनाती हैं, लेकिन इन तस्वीरों के पीछे एक पुराना भारत और पुराना बिहार भी आज भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। यह फर्क केवल गांव और शहर की दूरी नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानता का आईना भी है।जहां एक ओर प्राइवेट स्कूल डिजिटल प्लेटफॉर्म के ज़रिए आकर्षक प्रचार और मोटी फीस के साथ बच्चों को आमंत्रित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में शिक्षक गांव की गलियों में माइक से बच्चों और उनके अभिभावकों से अपील कर रहे हैं कि वे स्कूल लौट आएं।
इन सरकारी स्कूलों के पास ठीक-ठाक इमारतें हैं, योग्य शिक्षक हैं, जो बीपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं से चयनित हुए हैं। लेकिन बाज़ार की भाषा में कहें तो, इनके पास प्राइवेट स्कूलों जैसी ब्रांडिंग और मार्केटिंग का अभाव है। यही वजह है कि छात्र नामांकन के बावजूद स्कूल नहीं लौट रहे हैं।शिक्षकों की चिंता जायज़ है, क्योंकि खाली क्लासरूम सवाल खड़े कर रहे हैं। जब बात बच्चों की अनुपस्थिति की वजह पर आती है, तो इसका सबसे बड़ा कारण आर्थिक तंगी और शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी सामने आती है।सच्चाई यही है कि सरकारी स्कूलों में वही बच्चे पढ़ते हैं, जिनके माता-पिता प्राइवेट स्कूल की भारी फीस वहन करने में असमर्थ हैं। हालांकि समस्या केवल आर्थिक नहीं है, शिक्षा के महत्व को लेकर जागरूकता की कमी भी उतनी ही बड़ी बाधा है।शिक्षक गांव-गांव जाकर माइक के ज़रिए यही संदेश दे रहे हैं कि शिक्षा ही वह रास्ता है, जो जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल सकता है। ठीक वैसे ही, जैसे एपीजे अब्दुल कलाम ने सीमित संसाधनों के बावजूद शिक्षा के सहारे वैज्ञानिक और देश के राष्ट्रपति बनने का सपना साकार किया।यह प्रयास न केवल बच्चों की ज़िंदगी बदलने की कोशिश है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक नई राह बनाने की उम्मीद है, ताकि भविष्य में कोई भी अभिभावक फीस के अभाव में अपने बच्चों की पढ़ाई अधूरी न छोड़े।