आदिवासी जनजाति परिवार तक नहीं पहुंच रही केंद्र की योजनाएं, विकास की कोशिशों पर बाबू और हुक्मरान फेर रहे पानी, लॉकडाउन में बदहाली की हालत

Sanjeev Shrivastava

सोनू भारती

 चतराः झारखंड की संस्कृति के रक्षक कहलाने वाले आदिवासी जनजाति परिवार इन दिनों सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। स्थिति यह है कि प्रतिमाह इनके कल्याण में करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी बाबुओं और हुक्मरानों के लापरवाही के कारण इनतक विकास की किरण नहीं पहुंच पाई है।

चतरा के सिमरिया अनुमंडल के जंगलों के किनारे निवास करने वाले आदिम जनजाति बिरहोर परिवार लॉकडाउन के कारण बदहाली के कगार पर पहुंच गए हैं। उन्हें इस बरसात के मौसम में आवास की समस्या के साथ-साथ खाने पीने की चिंता सता रही है।

बनाया गया था विशेष कानून, लेकिन नहीं मिला लाभ

 आदिम जनजाति के अंतर्गत आनेवाले बिरहोर समुदाय के लिए केंद्र सरकार ने एक विशेष कानून बनाया था। उस कानून के तहत इन्हें संरक्षित और स्थाई निवास करने के लिए तथा खेती, कृषि की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए इन्हें कल्याण विभाग की तरफ से मद उपलब्ध कराया जाता है। इसके बावजूद इन्हें ना गैस मिला है, ना राशन और ना ही आवास। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना 2022 तक सबको पक्का मकान देने का है लेकिन इनके सपनों को चकनाचूर करने का काम सरकारी बाबुओं की कागजों पर ही सिमट कर रह गई है।

तिरपाल लगाकर कर रहे गुजर-बसर

 बिरहोर परिवारों का कहना है कि रोजगार के लिये उन्हें सरकार का सहयोग भी नहीं मिल रहा है। जिसके कारण बिरहोर परिवार बदहाली और कंगाली के कगार पर पहुंच गए हैं।  जबड़ा में इनके लिये बिरसा आवास बनाया जा रहा है जो कई वर्षों से अधूरा पड़ा हुआ है। जिससे बिरहोर परिवार के समुदाय झोपड़ी बनाकर और स्वयं के खर्चे से तिरपाल का छत लगाकर इस बरसात के मौसम में निवास कर रहे हैं।

सिमरिया अनुमंडल के सभी क्षेत्रों में यह समुदाय जंगलों के किनारे ही निवास करते हैं। इनका मुख्य पेशा जंगलों में शिकार करना, जड़ी बूटी व कंदमूल बेचकर अपना गुजारा करना है। बिरहोर परिवारों की हालत देखने के बाद जब हमारी टीम ने पंचायत के मुखिया कृष्णा साहू से कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि जल्द ही बिरहोर परिवारों को पक्का मकान उपलब्ध कराते हुए मूलभूत समस्याओं से निजात दिला दिया जाएगा।

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