भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योगदान अविस्मरणीय है, मुरली मनोहर श्रीवास्तव से जानिए उनकी कहानी

Patna Desk

NEWSPR डेस्क। “अगर किसी देश को आगे बढ़ाना है तो उसके असहाय और कमज़ोर लोगों को सहारा देना ही सब कुछ नहीं है। समाज के सर्वोत्तम और प्रतिभाशाली लोगों को ऊँचा उठाना और उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचाना भी जरूरी है, जिससे कि वे देश की महान सेवा करने लायक़ बन सकें: जमशेद जी’

भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति तथा औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक थे जमशेदजी टाटा। भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योगदान अविस्मरणीय है। जब सिर्फ यूरोपीय, विशेष तौर पर अंग्रेज़, ही उद्योग स्थापित करने में कुशल समझे जाते थे, जमशेदजी ने भारत में औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया था। टाटा साम्राज्य के संस्थापक जमशेदजी के अन्दर भविष्य को भांपने की अद्भुत क्षमता थी तभी तो उन्होंने विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा के लिए बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध करायीं।

3 मार्च 1839 को दक्षिणी गुजरात के नवसारी में एक पारसी परिवार में जमशेदजी नसरवानजी टाटा का जन्म में हुआ था। उनके पिता का नाम नसरवानजी तथा माता का नाम जीवनबाई टाटा था। उनके पिता अपने ख़ानदान में अपना व्यवसाय करने वाले पहले व्यक्ति थे। मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही जमशेदजी अपने पिता के साथ मुंबई आ गए और व्यवसाय में क़दम रखा। छोटी उम्र में ही उन्होंने अपने पिता का साथ देना शुरू कर दिया था। जब वे सत्रह साल के थे तब उन्होंने मुंबई के ‘एलफ़िंसटन कॉलेज’, में प्रवेश ले लिया और दो वर्ष बाद सन 1858 में ‘ग्रीन स्कॉलर’ (स्नातक स्तर की डिग्री) के रूप में उत्तीर्ण हुए और पिता के व्यवसाय में पूरी तरह लग गए। आगे चलकर हीरा बाई दबू के साथ जमशेद जी की शादी संपन्न हुई।

जमशेद जी ने अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद एक वकील के साथ काम करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वकील का दफ्तर छोड़कर अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बंटाना उचित समझा। व्यापार के प्रति बेटे की लगन और कर्मठता को देखकर नसरवान जी बहुत प्रसन्न हुए। अब वे अपना व्यवसाय भारत से बाहर फैलाना चाहते थे।

जमशेदजी ने चीन के शंघाई में शाखा खोली

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जमशेद जी को चीन भेजा। जमशेद जी ने हांगकांग और शंघाई जैसे बड़े नगरो में अपने व्यापार की शाखाएं खोली। उन्होंने चीन में रहकर वहां की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन किया। अपने व्यापार को विस्तार देने की कड़ी में वे लन्दन भी गये। 25 वर्ष की उम्र में उन्होंने लन्दन में सूती वस्त्र उद्योग पर अधिक ध्यान दिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने लंकाशायर और मेनचेस्टर नगरो की यात्रायें की। यहाँ वे चार वर्ष तक वस्त्र उद्योग से सम्बन्धित समस्याओ क अध्ययन करते रहे।

1857 कि क्रान्ति को कुचलने में सफल रहे

वह दौर बहुत कठिन था। अंग्रेज अत्यंत बर्बरता से 1857 कि क्रान्ति को कुचलने में सफल हुए थे। 29 साल ककी आयु तक जमशेदजी अपने पिता जी के साथ ही काम करते रहे। 1868 में उन्होने 21000 रुपयों के साथ अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया। सबसे पहले उन्होने एक दिवालिया तेल कारखाना ख़रीदा और उसे एक रुई के कारखाने में तब्दील कर दिया और उसका नाम बदल कर रखा – एलेक्जेंडर मिल यह दो साल बाद उन्होने इसे खासे मुनाफे के साथ बेच दिया। इस पैसे के साथ उन्होंने नागपुर में 1874 में एक रुई का कारखाना लगाया। महारानी विक्टोरिया ने उन्ही दिनों भारत की रानी का खिताब हासिल किया था और जमशेदजी ने भी वक़्त को समझते हुए कारखाने का नाम इम्प्रेस्स मिल रखा।

औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रुके। देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्वपूर्ण योजना बनाई। ऐसे स्थानों की खोज की जहाँ लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा से प्राप्त हो सके। अंतत: आपने बिहार के जंगलों में सिंहभूमि जिले में वह स्थान (इस्पात की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त) खोज निकाला। जमशेद जी की अन्य बड़ी उल्लेखनीय योजनाओं में पश्चिमी घाटों के तीव्र धाराप्रपातों से बिजली उत्पन्न करनेवाला विशाल उद्योग है जिसकी नींव 8 फ़रवरी 1911 को लानौली में गवर्नर द्वारा रखी गई।

हाटेल ताज के पीछे की कहानी

विश्व प्रसिद्ध ‘ताजमहल होटल’ सिर्फ़ मुम्बई ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत में ख्यातिप्राप्त है। ‘ताजमहल होटल’ के निर्माण के पीछे एक रोचक कहानी छुपी हुई है। सिनेमा के जनक लुमायर भाईयों ने अपनी खोज के छ: महीनों बाद अपनी पहली फ़िल्म का शो मुम्बई में प्रदर्शित किया था। वैसे तो वे ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे, लेकिन बीच रास्ते में उन्होंने मुम्बई में भी शो रखने की बात सोची। 7 जुलाई, 1896 को उन्होंने मुम्बई के तत्कालीन आलीशान वोटसन होटल में अपनी छ: अलग-अलग फ़िल्मों के शो आयोजित किए। इन शो को देखने के लिए मात्र ब्रिटिश लोगों को ही आमंत्रित किया गया था, क्योंकि वोटसन होटल के बाहर एक तख्ती लगी रहती थी, जिस पर लिखा होता था कि “भारतीय और कुत्ते होटल में नहीं आ सकते हैं”। रंगभेद की इस घृणित नीति के ख़िलाफ़ उन्होंने आवाज भी उठाई। इस घटना के दो साल बाद ही वोटसन होटल की सारी शोभा धूमिल कर दे, एक ऐसे भव्य ‘ताजमहल होटल’ का निर्माण जमशेदजी ने शुरू करवा दिया। 1903 ई. में यह अति सुंदर होटल बनकर तैयार हो गया। कुछ समय तक इस होटल के दरवाज़े पर एक तख्ती भी लटकती थी, जिस पर लिखा होता था कि- “ब्रिटिश और बिल्लियाँ अंदर नहीं आ सकतीं।

औद्योगिक जीवन का सूत्रपात

इंग्लैड की प्रथम यात्रा से लौटकर इन्होंने चिंचपोकली के एक तेल मिल को कताई बुनाई मिल में परिवर्तित कर औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया। वहाँ लंकाशायर के से बारीक वस्त्र की उत्पादनविधि और उसके लिए उपयुक्त जलवायु का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने नागपुर को चुना और वहाँ वातानुकूलित सूत मिलों की स्थापना की। इस तरह लंकाशायर का जलवायु कृत्रिम साधनों से नागपुर की मिलों में उपस्थित कर दिया। जमशेद जी के दिमाग में तीन बडे विचार आये।  एक, अपनी लोहा व स्टील कंपनी खोलना ; दूसरा, एक जगत प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र स्थापित करना ; व तीसरा, एक जलविद्युत परियोजना लगाना।  तीनो कार्य उनके बच्चोने  किया।   होटल ताज महल  दिसंबर 1903 में 4,21,00,000 रुपये के शाही खर्च से तैयार हुआ।

भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योग असाधारण महत्त्व रखता है। इन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया, जब उस दिशा में केवल यूरोपीय, विशेषत: अंग्रेज ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैड की प्रथम यात्रा से लौटकर इन्होंने चिंचपोकली के एक तेल मिल को कताई-बुनाई मिल में परिवर्तित कर औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया। किन्तु अपनी इस सफलता से उन्हें पूर्ण सन्तोष न मिला। पुन: इंग्लैंड की यात्रा की। वहाँ लंकाशायर से बारीक वस्त्र की उत्पादन विधि और उसके लिए उपयुक्त जलवायु का अध्ययन किया।

इसके लिए उन्होंने नागपुर को चुना और वहाँ वातानुकूलित सूत मिलों की स्थापना की। औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रूके। देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्त्वपूर्ण योजना बनायी। ऐसे स्थानों की खोज की जहाँ लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा प्राप्त हो सके। अंतत: आपने बिहार के जंगलों में सिंहभूमि(अब झारखण्ड) जिले में वह स्थान खोज निकाला। खनिजों आदि के अन्वेषण की यह तथा अन्य बड़ी योजनाएँ अभी पूरी भी नहीं हुई थीं कि उनके ख्यातिपूर्ण जीवन का, आशा के प्रतिकूल 65 वर्ष की अवस्था में ही अंत हो गया। उनके बाद उनके पुत्रों, सर दोराब और सर रतन ने विविध योजनाओं को पूरा करके और कारोबार बढ़ाकर टाटा परिवार को प्रतिष्ठा ही नहीं अपितु विभिन्न क्षेत्रों में सहायता और दान की निधि का भी विस्ता

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