झारखंड के साथ-साथ मिथिला में भी प्रकृति पूजक पर्व करमा सदियों से आस्था और परंपरा के साथ मनाया जाता रहा है। इस वर्ष भी मधुबनी जिले के मधेपुर प्रखंड के पचही डयोढ़ी में यह पर्व पूरे उल्लास और भक्ति भाव से आयोजित किया जा रहा है। यहां विशेष रूप से होने वाला जलहेर अनुष्ठान दूर-दराज से लोगों को आकर्षित कर रहा है।
मिथिला का राज परिवार इस पर्व को लंबे समय से राजकीय पर्व के रूप में मनाता आ रहा है। इस बार पंडित अरुण झा ने पारंपरिक झलहेर पद्धति से पूजा सम्पन्न कराई। राजपरिवार के सदस्य बाबू श्रीपति सिंह ने बताया कि भाद्र शुक्ल एकादशी, जिसे स्थानीय लोग कर्मा-धरमा एकादशी या जलझुलनी एकादशी भी कहते हैं, इसी दिन करमा की पूजा होती है। दिनभर मेला लगा रहता है और व्रती जलहेर अनुष्ठान के बाद ही प्रसाद ग्रहण करते हैं।
शाम की आरती के बाद करमा धरमा पोखर में नौका विहार का आयोजन होता है, जिसे जलहेर कहा जाता है। नाव पर लकड़ी के तख्त पर विराजमान भगवान करमा धरमा को अगरबत्ती दिखाते हुए पोखर के चारों ओर घुमाया जाता है। इसी के साथ पूजा की पूर्णाहुति होती है और जलहेर के दौरान ही करमा-धरमा का विसर्जन किया जाता है। खास बात यह है कि विसर्जन की यह परंपरा पुरुषों की बजाय महिलाओं द्वारा निभाई जाती है।
इतिहासकारों के अनुसार, इस पूजा का आयोजन महाराजा माधव सिंह (1775–1807) के समय से राजपरिवार द्वारा किया जा रहा है। उस समय महाराजकुमार रमापति सिंह को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। बाद में उनके बेटे बाबू पुण्यपति सिंह ने 1860 के आसपास जलहेर पूजा को मधेपुर से पचही स्थानांतरित किया। पहले इस आयोजन में तिरहुत नरेश भी शामिल होते थे और लाखों की भीड़ उमड़ती थी।
राजपरिवार के सदस्य आशीष नंदन सिंह का कहना है कि पहले इस पर्व में सभी जातियों और समुदायों की भागीदारी होती थी, परंतु अब यह धीरे-धीरे सीमित होता जा रहा है और मुख्य रूप से आदिवासी समुदाय तक सिमटकर रह गया है। मैथिली साहित्य और शब्दकोशों में भी जलहेर शब्द का उल्लेख “नाव से जलविहार” या “जलक्रीड़ा” के रूप में मिलता है, जो इसकी लोकभाषा और संस्कृति से गहरे संबंध को दर्शाता है।