NEWSPR डेस्क। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की आज 137वीं जयंती है। इस मौके पर पल्वी राज कंस्ट्रक्शन और न्यूज पीआर के सीएमडी संजीव श्रीवास्तव ने उन्हे नमन करते हुए श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा कि डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ऐसे महान शख्सियत थे, जिनकी विद्वता की चर्चा देश में ही नहीं विदेशों में भी होती है। लोग उन्हें प्यार से बाबू राजेंद्र प्रसाद भी कहकर बुलाते हैं।
आपको बता दें डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर 1884 को सीवान के जीरादेई गांव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पांच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्यकाल में ही लगभग 13 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टीके घोष अकादमी से अपनी पढ़ाई जारी रखी। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। साल 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले और बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ एलएलएम की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार की ओर से सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनको देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभा सम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं. देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे। अपने जीवन के आखिरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के सदाकत आश्रम को चुना। 28 फरवरी 1963 को वे हम सबको छोड़कर चले गए।