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नमक बनाते हैं और इसी में दफन हो जाते हैं… देश को नमक खिलाने वाले किसानों का ‘खारा’ सच

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NEWSPR डेस्क। सुरेंद्रनगर (खाराघोड़ा) ‘मरने के बाद हमारी लाशें भी ठीक से नहीं जलतीं। घुटने के निचले हिस्से को गड्ढा खोदकर जमीन में गाड़ देते हैं। उसके ऊपर से नमक भर देते हैं ताकि वह गल जाए। जीते जी तो हमारे जीवन में नमक होता ही है, मरने के बाद भी वह साथ नहीं छोड़ता। जब तक जिंदा रहते हैं, अंधापन, चमड़े का रोग, मलेरिया और गलन जैसी बीमारियों से लड़ते हैं। बच्चों को पढ़ा भी नहीं पाते। कोई बीमार हो जाए तो यहीं मर जाएगा। अस्पताल पहुंच ही नहीं पाएगा, इलाज की तो बात ही बहुत दूर है।’ फावड़ी (फावड़ा) से नमक खींचते हुए जयंती भाई आगे बढ़ जाते हैं।

ये काहानी उस अगड़िया किसानों की आप बीती है जिनका बनाया नमक पूरा देश खाता है। जयंती भाई (42) भी अगड़िया मजदूर हैं और वे गुजरात के सुरेंद्रनगर में स्थित खाराघोड़ा रण में नमक किसान हैं। उन्हें याद भी नहीं है कि वे यहां कब से काम कर रहे हैं। 2021-22 में देश में 266 लाख टन से ज्यादा नमक का उत्पादन हुआ था। इसमें से 227.65 लाख टन यानी 85% नमक का उत्पादन गुजरात में हुआ था। गुजरात के बाद सबसे ज्यादा नमक का उत्पादन तमिलनाडु (17.21 लाख टन) और राजस्थान (16.90 लाख टन) में हुआ था।

खाराघोड़ा को लिटिल रण ऑफ कच्छ भी कहा जाता है। 5,000 स्क्वैयर किलोमीटर से ज्यादा के क्षेत्र में फैला ये रण कच्छ के रण की ही तरह नमक पैदा करता है और गुजरात में पैदा होने वाले कुल नमक में इस रण की हिस्सेदारी लगभग 30% है। यहां नमक किसानों की संख्या 50 हजार से ज्यादा है। यहां भी जमीन से निकले पानी से नमक बनाया जाता है। देश के कई हिस्सों में समुद्र के पानी से भी नमक बनता है। बिना नमक महंगे से महंगे पकवान भी बेस्वाद हो जाता है। लेकिन नमक बनाने वाले मजदूरों की जिंदगी खारी है। पानी के जितने खारे पन से वे नमक बनाते हैं। उनका जीवन उससे भी खारा है। सरकार की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में नमक मजदूरों की संख्या 9 लाख से ज्यादा है। गुजरात में लगभग 4.5 लाख मजदूर इस काम से जुड़े हैं।

लगभग 45 साल की मनीषा को तो यह भी नहीं पता है गुजरात में चुनाव है। लगभग 8 घंटे नमक की क्यारियों में काम करने के बाद वे रण में बने झोपड़ीनुमा घर में लौट आाई हैं। पैरों को बार-बार धो रही हैं। लेकिन उसकी रंगत सफेद की सफेद ही है। ‘ यहीं पैदा हुई थी। यहीं काम कर रही। दो महीने से बाहर गई नहीं हूं। एक महीने से नहाया नहीं है। पीने का पानी भी यहां महीने में एक बार आता है। वह भी सरकार की इच्छा ऊपर निर्भर है। हमें तो चुनाव का तब पता चलता है कि जब नेता लोग वोट मांगने आते हैं। लेकिन यहां तो सब आते भी नहीं। शहर से 50-60 किलोमीटर दूर कौन आएगा।’ मनीषा कहती हैं।

लगभग 35 साल के महेश अगड़िया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। हम जब उनके पास पहुंचे तो अपने खेत की क्यारियों को ऊंचा करने में व्यस्त थे। काम करते-करते वे गुजराती में बताते हैं, ‘मैं यहीं पैदा हुआ हूं। सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ भी नहीं है। अगर बीमार पड़ जाएं तो 50 किलोमीटर दूर अस्पताल जाना पड़ता है और वहां जाने के लिए यहां कोई गाड़ी भी नहीं है। पीने का पानी भी टैंकर से आता है। बच्चों के लिए यहां न कोई स्कूल है और न ही पास में कोई बाजार, जहां हम अपनी जरूरत का सामान खरीद सकें। बच्चों को घर पर अकेला छोड़ नहीं सकते। वे भी हमारे साथ काम पर आते हैं।’

अगड़िया किसानों पर सोडियम क्लोराइड जैसे रासायनों की भयंकर मार पड़ती है। उनके साथ बच्चे और पत्नियां भी यहीं काम करती हैं। गुजरात में नमक के लिए पहले साल्ट बेसिन (खेतों की क्यारी) तैयार किये जाते हैं। इसमें जमा खारा पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है और अंत में बचता है जमा हुआ नमक। इसे प्रोसेसिंग के लिए फैक्ट्रियों में भेजा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान नमक मजदूर खुले पैर लगभग दस से बारह घंटे नमकीन पानी में रहते हैं। वैसे तो नियम तो यह है कि मजदूरों को धूप से बचाने के लिए काले चश्मे और पैरों के लिए गमबूट होने चाहिए। लेकिन से सब कागजी हैं। आमतौर पर एक अगड़िया किसान प्रतिदिन 60 टन नमक का उत्पादन करता है, जिसके बदले उन्हें लगभग 150 से 200 रुपए का मेहनताना मिलता है।

महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सत्ता के कब्जे से नमक को आजाद कराने के लिए सत्याग्रह किया था। अंग्रेजों के जाने के बाद नमक केंद्र सरकार के अधीन आ गया। वर्ष 2021 में आई सीएजी की रिपोर्ट चौंकाती है। रिपोर्ट की मानें तो मजदूर पीने के पानी के लिए भी तरह रहे हैं। बच्चे पढ़ने के लिए तरस रहे हैं। नमक उत्पादन के दुष्प्रभाव के कारण उनकी आंखें खराब हो रही हैं। लकवा मारने की भी शिकायतें हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह कि इन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पाता।

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सुरेंद्रनगर के वरिष्ठ पत्रकार और इन नमक किसानों की समस्याओं पर लिखने वाले अंबू पटेल बताते हैं, ‘नमक में लगातार काम करते रहने के कारण इन किसानों की आंखों की रोशनी कम होने लगती है। अंधापन, चमड़ी का कठोर हो जाना, गलन, ब्लड प्रेशर, घुटने का चोटिल हो जाना, पीठ में दर्द और मलेरिया जैसी बीमारियों तो इनके लिए आम है। इनके पैर हमेशा ही नमक में रहते हैं। जिसकी वजह से पैर की शिराओं में रक्त का प्रवाह कमजोर पड़ जाता है और नसें सूख जाती हैं। पैर सूख कर पतले और कठोर हो जाते हैं। किसी मजदूर की मौत हो जाने पर जब उसका शरीर जलाया जाता है तो सारा शरीर जल जाता है। लेकिन पैर नहीं जलता। बाद पैरों को गड्ढा खोद कर दफन कर दिया जाता है और उन पर नमक छिड़क दिए जाते हैं ताकि पैर गल जाये। गांधी जी ने भले ही नकम को आजाद कराया। लेकिन नमक बनाने वाले किसान या कहें अगड़िया मजदूरों के लिए यह सब त्रासदी ही है।

‘अक्टूबर से जून तक ये किसान यहीं रहते हैं। इनकी स्थिति मजदूरों जैसी है। इनके बच्चों को पढ़ाने के लिए सीजन के समय यहां टीचर भेजे जाते हैं। लेकिन एक ही टीचर आता है जो सभी विषयों को पढ़ाता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये टीचर अलग से नहीं रखे गये हैं। यही टीचर यहां से बाहर के स्कूलों में भी पढ़ाते हैं। कहने को तो यहो मेडिकल वैन होती है। लेकिन वह भी सरकारी अस्पतालों जैसी ही बिना काम की होती है। कुल मिलाकर सरकार इनके बारे में सोच तो रही है। लेकिन जमीनी हकीकत उसकी भी दूसरी योजनाओं जैसी है।’ अंबू पटेल कहते हैं। वे ये भी बताते हैं कि अगड़िया कोई समुदाय, जाति या धर्म नहीं है। जो कोई नमक बनाता है, उसे हमारे यहां अगड़िया कहा जाता है।

अंबू भाई आगे कहते हैं कि अक्टूबर से शुरू होकर जून तक जब नमक की पैदावार होती है तो मजदूरों को भी काम पर लगाया जाता है। किसानों के लिए सरकार ने दसवीं योजना में नमक मजदूर आवास योजना के तहत पांच हजार आवास बनवाये थे। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड को मजदूरों के बीच पीने का पानी पहुंचाने की योजना सौंपी गयी थी। लेकिन इन योजनओं को क्या हुआ, किसी को नहीं पता। सरकार पहल कर तो रही है। लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

महंगाई के इस दौर में इतने कम पैसे में इन किसानों का जीवन यापन कैसे होता होगा? इंडियन सॉल्ट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (इस्मा) के अध्यक्ष भरत सी रावल बताते हैं कि पहले गुजरात में 30,000 मीट्रिक टन नमक का उत्पादन होता था। 1991 तक यह तीन वर्षों में 7,00,000 मीट्रिक टन तक पहुंच गया। हमने नमक किसानों को स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा सहायता प्रदान करके उन दिनों सीएसआर से काम किया था। जब हमने इन किसानों के लिए काम करना शुरू किया तो किसानों को ₹17/प्रति टन मिल रहा था और पहले वर्षों में कीमत बढ़कर ₹27 प्रति टन हो गई और 1991 तक ₹70 तक पहुंच गई।

लेकिन यह भी सच है कि इन किसानों के जीवन में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आ सका है। नमक उद्योग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब पांच लाख लोग काम करते हैं। इस समय एक किसान एक टन नमक से लगभग ₹250 से ₹300 तक कमा लेता है। कीमतों में उतार-चढ़ाव होता रहता है। रावल आगे कहते हैं।

आंकड़ों की मानें तो देश की लगभग 75 फीसदी आबादी गुजरात का बना नमक खाती है। जबकि देश में कुल पैदा होने नमक में गुजरात की हिस्सेदारी लगभग 80% है। बाकी के बचे 20 फीसदी में राजस्थान की हिस्सेदारी 10% है। बचे 10 फीसदी में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और हिमाचल प्रदेश है। भारत लगभग 55 देशों को 10 मिलियन टन नमक निर्यात भी करता है। बात अगर दुनियाभर की करें तो चीन और अमेरिका के बाद नमक सबसे ज्यादा भारत में ही बनता है।

नमक विभाग की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 2020-21 में देश में नमक का जितना उत्पादन हुआ, उसमें से 76 लाख टन नमक घरेलू इस्तेमाल में लाया गया, जबकि 66 लाख टन नमक विदेशों में निर्यात किया गया। बाकी का नमक उद्योगों में भेजा गया। भारत ने 2020-21 के दौरान लगभग 870 करोड़ रुपए का नमक निर्यात किया। लेकिन करोड़ों रुपए के इस कारोबार का स्याह पक्ष भी है।

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