अखिल संसार के सभी प्राणियों में नवजीवन का संचार करते हुए उनके सभी कार्यों को सम्पदित तथा प्रकाशित कराने वाला सर्वज्योतिर्मान सत्वरजतमोगुणस्वरुप “सूर्य ” ही है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से वही त्रिदेव स्वरुप विद्वान अत्रि भारद्वाज ने बताया कि ब्रह्मविष्णुमहेश्वर है। इस ज्योति पुंज में सभी जगत पालन के साथ उनके सभी रोग- दुःख तथा अन्य बाधाओं से मुक्त करने का क्षमता है, वह शक्ति पुंज निरंतर अपने प्रकाश से हर स्थिति में एकसमानता – से रहने का संदेश कोई देने वाला सूर्य से बढ़कर कोई अन्य बताना अज्ञानता होगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि कौन है ? ” छठी मैया “! ____
ऋग्वेद में विष्णु शब्द सूर्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो जगत को अलौकिक करते हैं, इसी लिए आर्य – सनातन संस्कृति में इनकी पूजा का विशेष महत्व है। सूर्य की पूजा भारत के विभिन्न प्रांतों में प्रचलित है, बिहार -झारखण्ड- उत्तर प्रदेश में छठ व्रत के पर्व में सूर्य की पूजा की जाती, वर्ष के बारह महीने के शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि सूर्य पूजा हेतु श्रेष्ठ है, जिनमें लोकप्रचलित सिर्फ दो ही है , हर माह के अलग-अलग नामों से उपासना होती है,प्रथमत: चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी नवसम्वत्सर तथा मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु व्रत होता है दुसरा कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी विशेष ख्यातिलब्ध है, ऐसे भी यह माह बारह महीने में श्रेष्ठ है जिसके विषय में पुराण कहते कि_
कार्तिक खलु वो मास:मासेषुचोत्म: ,
पुण्यानां परमं पुण्यपावनानां
च पावनं।( स्क.पु.)
इसी समय वर्ष का सर्वश्रेष्ठ दुसरा खरीफ फसल होती है जिसका स्वागत तथा अच्छी उपज हेतु प्रार्थना भी करते हैं, चुकी सूर्य में जो ऊर्जा है उसके प्रभाव से ही सभी वनस्पतियां है और इन्हीं वनस्पतियों को जीव-जगत का आहार बनाकर जीविकोपार्जन का साधन बनाते हैं।
कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि के सम्बन्ध में भविष्य पुराण में चर्चा है _”षष्ठितिथि: महाराज सर्वदा सर्वकामदा उपोष्या ……!” जो प्राणी अपने जय की ईच्छा रखता है उसे षष्ठी तिथि को उपवास करना चाहिए। दे.भा.पुराण में षष्ठी (छठी मैया) देवी के महात्म्य वर्णन इस प्रकार किया है यथा —-
षष्ठाशां प्रकृतेर्या चसा च षष्ठी प्रकीर्तिता ,
बालकानामधिष्ठात्री विष्णु माया च बालदा।
मातृका च विख्याता देवसेनाविद्या च जया,
प्राणाधिक प्रिया साध्वी स्कंन्दमार्या च सुव्रता।
प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण इन्हें षष्ठी देवी कहते हैं।ये बालकों की अधिष्ठात्री बालदा तथा विष्णु माया कहीं जाती है,मातृकाओ में ये देवसेना के नाम से विख्यात तथा कार्तिकेय की ये प्राणप्रिया पत्नी है।ये बालकों को आयु देने वाली सिद्ध योगीनी जो दैवीय योगबल से सदैव बालकों के समीप स्थित रहतीं हैं,इनको सर्वज्योतिर्मान सूर्य का वर प्राप्त है कि जो इस दिन व्रत रखेंगे उनके संतानो को कोई कष्ट नहीं आयेगा साथ ही अन्य मनोभिलाशित फ़ल की प्राप्ति होगी, यही वह छठी माता है जन्म से छः दिन तक नवजात बालकों का छठी तक बालारिष्ठ संकटों से रक्षा करतीं हैं।
ऐसे तो सूर्योपासना प्रति दिन करने का विधान है उसमें भी विशेष काल में सूर्य अर्चन का विशेष महत्व है,उन्हीं में षष्ठी तिथि पर श्रीराम ने रावण पर विजय हेतु “आदित्य हृदय स्त्रोत” का पाठ किये , महाभारत काल में द्रौपदी ने सूर्य पुजन किया, कृष्ण पुत्र साम्ब तथा मयुर के रोगो का निदान सूर्य पूजनोपरांत हुआं, नेत्र का रोग सूर्योपासना से दूर होंगे, वेद में केवल चौदह सुक्त सूर्य पर निबद्ध है। सूर्य पूजा की प्राचीनता आदि काल से उपासना क्रम चलता आ रहा है,जिसकी प्रमाणिकता वेद,सिन्दुघाटी सभ्यता तथा हड़प्पा कईसे प्राप्त विभिन्न प्रकार के सूर्य मूर्ति, सिक्के तथा प्राप्त अभिलेखों से सिद्ध होता हैं कि ऋग्वैदिक काल में भी सूर्य, इन्द्र, अग्नि,की उपासना हेतु विभिन्न सुक्त है। सूर्य स्थावरजंङ्गम की आत्मा है। ज्योतिषीय आधार पर सूर्य ”नक्षत्रग्रहणाधिपो सूर्य:” यह ग्रहराज है सदा मार्गी है कभी वक्री नहीं होते,ये सिंह राशि के स्वामी, इनकी उच्च राशि मेष तथा नीच तुला है,ये एक राशि पर एक माह रहते हैं एक वर्ष में खमण्डल का सम्पूर्ण चक्कर पूरा कर लेते हैं, ये राज-पद विद्या के अधिष्ठाता, जगत के पिता, आत्मा के अधिकारी मानें गये है ,इनका रत्न माणिक्य धातु सोना है। ऐसे सूर्य निरंतर सबको ऊर्जा देते, तथा सम्मान और उचित पद-प्रतिष्ठा के कारक है, इसीलिए सभी स्त्री -पुरुषो ने इन्हें छठी माता की संज्ञा दी है, साथ ही सर्वज्योतिर्मान आदित्य का त्रिदिवसीय करते हैं “छठ व्रत (पूजा) से प्रसिद्ध है अब यह समस्त भारत हीं नहीं विदेशों में भी अपना स्थान बना लीं है धीरे-धीरे यह पर्व लोक आस्था का पर्व बन गया।
व्रत का नियम ——
(१) ब्रह्मचर्य का पालन ।
( २ ) चतुर्थी से खीर-पूड़ी।
( ३ ) पंचमी को लौकी -चावल एक पहर खाना।
( ४ ) कमर तक जल में खड़ा होकर षष्ठी को अस्पताल सूर्य को अर्ध्य देना पुनः अरुणोदय काल में सप्तमी को उदयाचल सूर्य का अर्घ्य देकर पारण करना है।