बिहार के पॉलिटिकल कॉरिडोर में यह चर्चा है कि पवन सिंह के काराकाट से चुनाव लड़ने के पीछे बीजेपी के कुछ प्रमुख नेताओं की रणनीति है। इस केंद्रबिन्दु में इस बार नीतिश कुमार नहीं बल्कि उपेन्द्र कुशवाहा है। उपेंद्र कुशवाहा लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जदयू में शामिल हो सकते है। ऐसी संभावना भी जतायी जा रही है कि नीतिश कुमार अपना उतराधिकारी कुशवाहा को न बना दे, जो सम्राट चौधरी को पाटलीपुत्र का सम्राट बनने में रोड़ा बन सकते है।
पवन सिंह ने दस अप्रैल को एक्स पर एक पोस्ट के जरिए यह जानकारी दी कि मैं काराकाट लोकसभा से चुनाव लडूंगा। हालांकि अपने पोस्ट में उन्होंने यह जानकारी नहीं दी कि वे किस पार्टी से चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में लोगों के बीच यह चर्चा है कि वे निर्दलीय ही चुनाव लड़ेंगे। टिवट् आने के बाद से ही पवन सिंह लोकल से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया में चर्चा का विषय बने हुए है। यह सही बात है कि पवन सिंह का केवल पूरे शाहाबाद क्षेत्र ही नहीं पूरे भोजपुरी समाज और विशेष तौर पूर्वांचल में इनकी जबरदस्त फैन फॉलोइंग है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि पवन सिंह ने काराकाट लोकसभा से ही चुनाव लड़ने का निर्णय क्यों लिया….? इसके पीछे यह कयास लगाया जा रहा है कि यह बीजेपी की रणनीति का एक पार्ट है, फिर खुद का पवन सिंह का निर्णय तो नहीं !
आगे की बात करने से पहले आसनसोल की घटना पर वापस लौटते है: करीब एक से डेढ़ माह पूर्व पवन सिंह को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बंगाल के आसनसोल लोकसभा से बनाया था। लेकिन पवन सिंह उम्मीदवार बनने के ठीक 24 घंटे कें अंदर ही यह घोषणा कर दी कि मैं आसनसोल से चुनाव नहीं लडूंगा। हालांकि इसके पीछे कई कारण बताएं जा रहे है।
पुराने गाने को लेकर विवाद में आ गए थे पवन सिंह: एक तो उनके कुछ पुराने गानों को लेकर टीएमसी और कांग्रेस नेताओं की ओर से पवन सिंह को उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर बीजेपी को घेरा जा रहा था।इन गानों में टाइटल और बोल बंगाल की महिलाओं को लेकर है। इसमें हसीना बंगाल की…..बंगाल वाली माल गाने प्रमुख तौर पर विवाद का कारण बना। इसी गाने को लेकर बंगाल की महिलाओं के सम्मान से जोड़कर टीएमसी और कांग्रेस नेताओं की ओर से पवन सिंह और बीजेपी पर निशाना साधा गया। साथ ही बंगाली अस्मिता को लेकर इसे मुद्दा बनाया जाने लगा। ऐसे में बीजेपी बैकफुट पर जाने लगी।
मोदी के निर्देश पर पवन सिंह की उम्मीदवारी हुई वापस: आसनसोल से उम्मीदवार बनने के बाद पवन सिंह और उनके समर्थक काफी खुश थे। खुश होने का कारण भी था कि पवन सिंह का बचपन आसनसोल में ही बिता है। साथ ही बिहार और झारखंड के लोगों की अच्छी-खासी आबादी आसनसोल में है। जिसका लाभ पवन सिंह को लोकसभा चुनाव में मिल सकता था। लेकिन उम्मीदवार बनने के महज 24 घंटे के अंदर ही पवन सिंह को चुनाव नहीं लड़ने का घोषण करना पड़ा। यह महज संयोग ही नहीं था। बल्कि पवन सिंह से चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा बीजेपी की ओर से करवाया गया। सूत्र बताते है कि पवन सिंह ने चुनाव नहीं लड़ने का घोषणा खुद से नहीं किया था। बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने खुद जेपी नड्डा से बात करके पवन सिंह की उम्मीदवारी वापस करवाने के लिए कहा था। मोदी यह अच्छी तरह से समझ गये थे कि यदि पवन सिंह को पार्टी बंगाल से चुनाव लड़ाती है तो कहीं इसका खमियाजा बंगाल चुनाव में भुगताना न पड़ जाए।
पवन सिंह के चुनाव लड़ने के पीछे कहीं बीजेपी तो नहीं : पवन सिंह बीजेपी से करीब 2014 की लोकसभा चुनाव से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े है। बीजेपी के स्टार प्रचार भी 2019 के लोकसभा चुनाव में थे। ऐसा क्या हो गया कि पवन सिंह को निर्दलीय चुनाव काराकाट लोकसभा से लड़ना पड़ रहा है। जबकि पवन सिंह की शुरू से ही इच्छा आरा से चुनाव लड़ने की रही है। आसनसोल टिकट कटने के बाद पवन सिंह ने आरा लोकसभा से उम्मीदवार बनने का काफी प्रयास भी किया। लेकिन वर्तमान सांसद आर के सिंह पर भारी नहीं पड़ सकें। आर के सिंह नरेंद्र मोदी के करीबी बताये जाते है साथ जनता के बीच उनकी स्वच्छ छवि भी टिकट नहीं कटने का एक प्रमुख कारण रहा।
वहीं पवन सिंह के करीबी बताते है कि आसनसोल टिकट वापस करने के बाद आरा से भी उम्मीदवार नहीं बनाएं जाने पर उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय लिया था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि आरा से चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा करके काराकाट लोकसभा क्षेत्र चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। वहीं बिहार के पॉलिटिकल कॉरिडोर में यह चर्चा है कि पवन सिंह के काराकाट से चुनाव लड़ने के पीछे बीजेपी के कुछ प्रमुख नेताओं की रणनीति है। इस केंद्रबिन्दु में इस बार नीतिश कुमार नहीं बल्कि उपेन्द्र कुशवाहा है। आपकों बता दे कि उपेंद्र कुशवाहा , कुशवाहा जाति से आते है। साथ ही बिहार में कुशवाहा समाज के धरातल के नेता उपेन्द्र कुशवाहा ही है। यह बात बीजेपी भलीभांति जानती है। तभी तो बीजेपी को उपेंद्र कुशवाहा को एक लोकसभा सीट के साथ एक विधान पार्षद का सीट भी देना पड़ा। भले ही उपेंद्र कुशवाहा के पास आज की तारीख में कोई विधायक और सांसद न हो, लेकिन कुशवाहा समाज उन्हें ही अपना नेता मानता है। बीजेपी और जदयू के प्रदेश अध्यक्ष भी कुशवाहा समाज से आते है लेकिन अभी तक यह दोनों साबित नहीं कर पाएं कि यहीं कुशवाहा समाज के सर्वमान नेता है।
सम्राट चौधरी 2025 में मुख्यमंत्री बनाना चाहते है: सम्राट चौधरी 2025 में हर हाल में सीएम के कुर्सी पर बैठाना चाहते है। अपने समाज के दूसरे नेताओं को सम्राट किसी भी सूरत में उभरने नहीं देना चाहते है। सम्राट चौधरी यह अच्छी तरह से जानते है कि यदि बीजेपी यह घोषणा कर भी दे कि…..बिहार में सीएम का चेहरा सम्राट चौधरी ही होंगे। लेकिन नीतिश कुमार कभी यह नहीं चाहेंगे कि सम्राट सीएम पद के उम्मीदवार हो। ऐसे में यदि उपेंद्र कुशवाहा चुनाव जीत जाते है तो यह कयास लगाया जा रहा है कि वह जदयू में ही शामिल हो जायेंगे। नीतिश कुमार से उपेंद्र कुशवाहा का व्यक्तिगत तौर पर संबंध बहुत अच्छे हैं। भले ही उपेंद्र कुशवाहा कई बार नीतिश कुमार को छोड़कर चले गए हो…….लेकिन आज भी नीतिश कुमार उपेंद्र कुशवाहा काफी पंसद करते है। साथ ही नीतिश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम दौर में चल रहे है। जदयू में नीतिश के बाद कोई भी ऐसा नेता नहीं बचा है जो पार्टी को संभाल सकें। केवल यह क्षमता उपेंद्र कुशवाहा में ही है। वहीं बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा है कि उपेंद्र कुशवाहा चुनाव जीतने के बाद ही जदयू में शामिल हो जायेंगे। साथ ही उपेंद्र कुशवाहा को जदयू के संगठन स्तर पर बड़ी जिम्मेवारी नीतिश कुमार देंगे। सम्राट चौधरी नीतिश कुमार के इसी योजना से परेशान है। यदि 2025 के विधानसभा चुनाव में एनडीए एक साथ चुनाव लड़ती है तो सीएम पद के दावेदार उपेंद्र कुशवाहा जदयू की तरफ से हो सकते है। जो सम्राट चौधरी रास्ते में रोड़ा बन सकते है। ऐसे में यह कयास लगाया जा रहा है कि पवन सिंह को एक रणनीति के तहत ही चुनाव में मैंदान में उतरा गया है। ताकि उपेंद्र कुशवाहा को सत्ता के पहले ही दरवाजे पर ध्वस्त कर दिया जाये । काराकाट लोकसभा क्षेत्र में राजपूतों की संख्या करीब ढाई लाख है यदि पवन सिंह राजपूतों का 50 प्रतिशत भी वोट काटने में सफल हो गए तो उपेंद्र कुशवाहा को हार का समाना करना पड़ सकता है। यदि यह रणनीति सफल हो जाती है तो सम्राट चौधरी के लिए एक अर्ण मार्ग पहुंचने में कुछ सहूलियत हो सकती है।